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पद्मपुराणे
दूरस्थमाधव पुष्पग्रहणच्छद्मना परा । स्रंसमानांशुका बाहुमूलं क्षणमदर्शयत् ॥ ५७ ॥ आबध्य मण्डलीमन्याश्चलिताकरपल्लवाः । सहस्रतालसङ्गीता रासकं दातुमुद्यताः ॥५८॥ नितम्बफलके काचिदम्भःस्वच्छारणांशुके । चण्डातकं नभोनीलं चकार किल लज्जया ॥ ५६ ॥ एवंविधक्रियाजालैरितरस्वान्तहारिभिः । अक्षोभ्यत न पद्माभः पवनैरिव मन्दरः ॥ ६० ॥ ऋजुदृष्टिविशुद्धात्मा परीषहगणाशनिः । प्रविष्ट 'धवलध्यानप्रथमं सुप्रभो यथा ॥ ६१ ॥ तस्य सवपदन्यस्तं चित्तमत्यन्तनिर्मलम् । समेतमिन्द्रियैरासीदात्मनः प्रवणं परम् ॥ ६२ ॥ कुर्वन्तु वा बाह्याः क्रियाजालमनकेधा । प्रध्यवन्ते न तु स्वार्थात्परमार्थविचक्षणा ॥ ६३॥ यदा सर्वप्रयत्नेन ध्यानप्रत्यूहलालसः । चेष्टां चकार सीतेन्द्रः सुरमाया विकल्पिताम् ॥ ६४ ॥ अत्रान्तरे मुनिः पूर्वमत्यन्तशुचिरागमत् । अनादिकर्मसङ्घातं विभुर्दग्धुं समुद्यतः ॥ ६५ ॥ कर्मणः प्रकृतीः षष्टिं निषूय दृढनिश्चयः । क्षपकश्रेणिमारुतदुत्तरां पुरुषोत्तमः ॥ ६६ ॥ माघशुद्धस्य पक्षस्य द्वादश्यां निशि पश्चिमे । यामे केवलमुत्पन्नं ज्ञानं तस्य महात्मनः ॥६७॥ सर्वद्राचिसमुद्भूते तस्य केवलचक्षुषि । लोकालोकद्वयं जातं गोष्पदप्रतिमं प्रभोः ॥६८॥ ततः सिंहासनाकम्पप्रयुक्तावधिचक्षुषः । सप्रणामं सुराधीशाः प्रचेलुः सम्भ्रमान्विताः ॥ ६६ ॥ आजग्मुश्च महाभूत्या महासङ्घातवर्त्तिनः । विधातुमुद्यताः श्राद्धाः केवलोत्पत्तिपूजनम् ॥ ७० ॥
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वृक्षके नामको लेकर विवाद करती हुई अपना पक्ष लेकर मुनिराज से निर्णय पूछने लगीं कि देव ! इस वृक्षका क्या नाम है ? ॥ ५६ ॥ जिसका वस्त्र खिसक रहा था ऐसी किसी कन्याने ऊँचाई पर स्थित माधवी लताका फूल तोड़नेके छलसे अपना बाहुमूल दिखाया ||२७|| जिनके हस्तरूपी पल्लव हिल रहे थे तथा जो हजारों प्रकारके तालोंसे युक्त संगीत कर रही थीं ऐसी कितनी ही कन्याएँ मण्डली बाँधकर रासक क्रीड़ा करनेके लिए उद्यत थीं ॥५८ || किसी कन्याने जलके समान स्वच्छ लाल वस्त्रसे सुशोभित अपने नितम्बतटपर लज्जाके कारण आकाशके समान नील वर्णका लँहगा पहन रक्खा था ॥ ५६ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अन्य मनुष्यों के चित्तको हरण करनेवाली इस प्रकारकी क्रियाओंके समूहसे राम उस तरह क्षोभको प्राप्त नहीं हुए जिस प्रकार कि वायुसे मेरुपर्वत क्षोभको प्राप्त नहीं होता है ॥ ६० ॥ उनकी दृष्टि अत्यन्त सरल थी, आत्मा अत्यन्त शुद्ध थी और वे स्वयं परीषहोंके समूहको नष्ट करने के लिए वस्त्र स्वरूप थे, इस तरह वे सुप्रभके समान शुक्ल ध्यानके प्रथम पाये में प्रविष्ट हुए ॥ ६१ ॥ उनका हृदय सत्त्व गुणसे सहित था, अत्यन्त निर्मल था, तथा इन्द्रियोंके समूहके साथ आत्मा के ही चिन्तनमें लग रहा था ॥६२॥ बाह्य मनुष्य इच्छानुसार अनेक प्रकारकी क्रियाएँ करें परन्तु परमार्थके विद्वान् मनुष्य आत्मकल्याणसे च्युत नहीं होते ॥ ६३ ॥ ध्यानमें विघ्न डालने की लालसासे युक्त सीतेन्द्र, जिस समय सर्व प्रकार के प्रयत्न के साथ देवमायासे निर्मित चेष्टा कर रहा था उस समय अत्यन्त पवित्र मुनिराज अनादि कर्म समूहको जलाने के लिए उद्यत थे || ६४ - ६५ ॥ दृढ़ निश्चयके धारक पुरुषोत्तम, कर्मों की साठ प्रकृतियाँ नष्टकर उत्तरवर्ती क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ हुए || ६६ || माघ शुक्ल द्वादशीके दिन रात्रिके पिछले पहर में उन महात्माको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ || ६७॥ सर्वदर्शी केवलज्ञान रूपी नेत्रके उत्पन्न होनेपर उन प्रभु के लिए लोक अलोक दोनों ही गोष्पदके समान तुच्छ हो गये ॥६८॥
तदनन्तर सिंहासन के कम्पित होनेसे जिन्होंने अवधिज्ञानरूपी नेत्रका प्रयोग किया था ऐसे सब इन्द्र संभ्रम के साथ प्रणाम करते हुए चले ||६६ || तदनन्तर जो देवोंके महा समूह के बीच वर्तमान थे, श्रद्धा से युक्त थे और केवलज्ञानकी उत्पत्ति की पूजा करनेके लिए
१. धवलं ध्यानप्रथमं म० । २. बाह्यक्रिया । ३. सर्वद्रव्य-म० ।
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