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त्रयोविंशोत्तरशतं पर्व अग्निकुण्डाद् विनिर्यातमथालोकत लचमणम् । बहुधा नारकैरन्यैरर्धमानं समन्ततः ।।१३॥ सीदन्तं विकृतग्राहे भीमे वैतरणीजले । छिद्यमानं च कनकैरसिपत्रवनान्तरे ॥१४॥ वधाय चोद्यतं तस्य बाधमानं भयानकम् । क्रद्धं बृहदुगदापाणि हन्यमानं तथा परः ॥१५॥ प्रचोद्यमानं घोराक्ष नवदेहं बृहन्मुखम् । तेन देवकुमारेण शम्बूकेन दशाननम् ॥१६॥ अत्रान्तरे महातेजाः सीतेन्द्रः सन्निधिं गतः। तजयन् तत्र तीव्र तं गणं भवनवासिनाम् ॥१७॥ अरे ! रे ! पाप शम्बूक प्रारब्धं किमिदं त्वया । कथमद्यापि ते नास्ति शमो निघृणचेतसः ॥१८॥ मुञ्च क्रूराणि कर्माणि भव स्वस्थः सुराधम । किमनेनाभिमानेन परमानर्थहेतुना ॥१६॥ श्रुत्वेदं नारकं दुःखं जन्तोभयमुदीर्यते । प्रत्यक्षं किं पुनः कृत्वा वासस्तव न जायते ॥२०॥ शम्बूके प्रशमं प्राप्ते ततोऽसौ विबुधेश्वरः । प्रबोधयितुमुद्युक्तो यावत्तावदमी द्रुतम् ॥२१॥ अतिदारुणकर्माणश्चला दुर्घहचेतसः । देवप्रभाभिभूताश्च नारकाः परिदुद्रुवुः ॥२२॥ रुरुदुश्चापरे दीना धाराश्रुगलिताननाः । धावन्तः पतिताः केचिद्गर्तेषु विषमेष्वलम् ॥२३॥ मा मा नश्यत सन्त्रस्ता निवर्गध्वं सुदुःखिताः । न भेतव्यं न भेतव्यं नारका भवत स्थिताः ॥२४॥ एवमुक्ताः सुरेन्द्रेण समाश्वासनचेतसा । प्राविक्षनन्धतमसं वेपमानाः समन्ततः ॥२५॥ भण्यमानास्ततो भूयः शक्रेणेषनयोज्झिताः । इत्युक्तास्ते ततः कृच्छ्रादवधानमुपागताः ॥२६॥
तदनन्तर उसने अग्निकुण्डसे निकले और अन्य अनेक नारकियोंके द्वारा सब ओरसे घेरकर नाना तरहसे दुःखी किये जानेवाले लक्ष्मणको देखा ॥१३॥ वहीं उसने देखा कि, लक्ष्मण विक्रिया कृत मगर-मच्छोंसे व्याप्त वैतरणीके भयंकर जलमें छटपटा रहा है और असिपत्र वनमें शस्त्राकार पत्रोंसे छेदा जा रहा है ॥१४॥ उसने यह भी देखा कि लक्ष्मणको मारनेके लिए वाधा पहुँचाने वाला एक भयंकर नारकी कुपित हो हाथमें बड़ी भारी गदा लेकर उद्यत होरहा है तथा उसे दूसरे नारकी मार रहे हैं ॥१५॥ सीतेन्द्रने वहीं उस रावणको देखा कि जिसके नेत्र अत्यन्त भयंकर थे, जिसके शरीरसे मल-भत्र झड़ रहे थे, जिसका मुख बहुत बड़ा था और शम्बूकका जीव असुरकुमार देव जिसे लक्ष्मणके विरुद्ध प्रेरणा दे रहा • था ॥१६॥
तदनन्तर इसी बीचमें महातेजस्वी सीतेन्द्र, भवनवासियोंके उस दुष्ट समूहको डाँटे दिखाता हुआ पासमें पहुँचा ॥१७॥ उसने कहा कि अरे ! रे ! पापी शम्बूक ! तूने यह क्या प्रारम्भ कर रक्खा है ? तुझ निर्दयचित्तको क्या अब भी शान्ति नहीं है ? ॥१८॥ हे अधमदेव! कर कार्य छोड़, मध्यस्थ हो, अत्यन्त अनर्थके कारणभूत इस अभिमानसे क्या प्रयोजन सिद्ध होना है ? ॥१६॥ नरकके इस दुःखको सुनकर ही प्राणीको भय उत्पन्न हो जाता है, फिर तुझे प्रत्यक्ष देखकर भी भय क्यों नहीं उत्पन्न होता है ? ॥२०॥ तदनन्तर शम्बूकके शान्त हो जानेपर ज्योंही सीतेन्द्र संबोधनेके लिए तैयार हुआ त्योंही अत्यन्त क्रूर काम करनेवाले, चञ्चल एवं दुर्ग्रह चित्तके धारक वे नारकी देवकी प्रभासे तिरस्कृत हो शीघ्र ही इधर-उधर भाग गये ।।२१-२२॥ कितने ही दीन-हीन नारकी, धाराबद्ध पड़ते हुए
आँसुओंसे मुखको गीला करते हुए रोने लगे, कितने ही दौड़ते-ही-दौड़ते अत्यन्त विषम गर्तोमें गिर गये ॥२३ ।। तब सान्त्वना देते हुए सीतेन्द्रने कहा कि 'अहो नारकियो ! भागो मत, भयभीत मत होओ, तुम लोग बहुत दुःखी हो, लौटकर आओ, भय मत करो, भय मत करो, खड़े रहो' इस प्रकार कहनेपर भी वे भयसे काँपते हुए गाढ़ अन्धकारमें प्रविष्ट हो गये ॥२४-२५॥ तदनन्तर यही बात जब सीतेन्द्रने फिरसे कही तब कहीं उनका कुछ-कुछ भय कम हुआ और बड़ी
१. प्रबोध्यमानं ख०, ब० । २. घोराक्षस्रवद्देहं म । Jain Education International
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