Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 437
________________ त्रयोविंशोत्तरशतं पर्व भासीत् प्रतिरिपुर्योऽसौ दशवक्त्रो महाबलः । येने मे भारते वास्ये त्रयः खण्डा वशीकृताः ॥२३॥ न कामयेत्परस्य स्त्रीमकामामिति निश्चयः । अपि जीवितमत्याचीत्तरसत्यमनुपालयन् ॥१२॥ सोऽयमिन्द्ररथाभिख्यो भूत्वा धर्मपरायणः । प्राप्य श्रेष्ठान् भवान् कांचित्तियंङ्नरकवर्जितान् ॥२५॥ समानुष्यं समासाद्य दुर्लभं सर्वदेहिनाम् । तीर्थकृत्कर्मसङ्घातमर्जयिष्यति पुण्यवान् ॥१२६॥ ततोऽनुक्रमतः पूजामवाप्य भुवनत्रयात् । मोहादिशत्रुसङ्घातं निहत्यार्हतमाप्स्यति ॥१२॥ रत्नस्थलपुरे कृत्वा राज्यं 'चक्ररथस्वसौ । वैजयन्तेऽहमिन्द्रत्वमवाप्स्यति तपोबलात् ॥१२८ स त्वं तस्य जिनेन्द्रस्य प्रच्युतः स्वर्गलोकतः । आद्यो गणधरः श्रीमानृद्धिप्राप्तो भविष्यति ।।१२६॥ ततः परमनिर्वाणं यास्यसीत्यमरेश्वरः । श्रत्वा ययौ परां तुष्टिं भावितेनाऽन्तरात्मना ॥१३॥ अयं तु लाचमणो भावः सर्वज्ञेन निवेदितः । अम्भोदरथनामासौ भूत्वा चक्रधरात्मजः ॥१३॥ चारून् कांश्चिनवान् भ्रान्स्वा धर्मसङ्गतचेष्टितः । विदेहे पुष्करद्वीपे शतपत्राह्वये पुरे ॥१३२॥ लचमणः स्वोचिते काले प्राप्य जन्माभिषेचनम् । चक्रपाणिस्वमहत्वं लब्ध्वा निर्वाणमेष्यति ॥१३॥ सम्पूर्ण सप्तभिश्चान्देरहमप्यपुनर्भवः । गमिष्यामि गता यत्र साधवो सरतादयः ॥१३॥ भविष्यद्भववृत्तान्तमवगम्य सुरोत्तमः । अपेतसंशयः श्रीमान्महाभावनयान्वितः ॥१३५॥ परिणूय नमस्कृत्य पद्मनाभं पुनः पुनः । तस्मिन्नुद्यति चैत्यानि वन्दितुं विहृतिं श्रितः ॥१३॥ जिननिर्वाणधामानि परं भक्तः समर्चयन् । तथा नन्दीश्वरद्वीपे जिनेन्द्रार्चामहद्धिकः ॥१३७॥ और मेघरथ नामक पुत्र होंगे ॥१२२।। जो पहले दशानन नामका तेरा महाबलवान् शत्रु था, जिसने भरतक्षेत्रके तीन खण्ड वश कर लिये थे, और जिसके यह निश्चय था कि जो परस्त्री मुझे। नहीं चाहेगी उसे मैं नहीं चाहूँगा । निश्चय ही नहीं, जिसने जीवन भले ही छोड़ दिया था पर इस सत्यव्रतको नहीं छोड़ा था किन्तु उसका अच्छी तरह पालन किया था। वह रावणका । जीव धर्मपरायण इन्द्ररथ होकर तिर्यश्च और नरकको छोड़ अनेक उत्तम भव पा मनुष्य होकर सर्व प्राणियोंके लिए दुर्लभ तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध करेगा। तदनन्तर वह पुण्यात्मा अनुक्रमसे तीनों लोकोंके जीवोंसे पूजा प्राप्तकर मोहादि शत्रुओंके समूहको नष्टकर अर्हन्त पद प्राप्त करेगा ॥१२३-१२७॥ और तेरा जीव जो चक्ररथ नामका चक्रधर हुआ था वह रत्नस्थलपुरमें राज्यकर अन्तमें तपोबलसे वैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र पदको प्राप्त होगा ॥१२८॥ वहीं तू स्वर्गलोकसे च्युत हो उक्त तीर्थकरका ऋद्धिधारी श्रीमान् प्रथम गणधर होगा ॥१२६।। और उसके बाद परम निर्वाणको प्राप्त होगा। इस प्रकार सुनकर सीताका जीव सुरेन्द्र, भावपूर्ण .. अन्तरात्मासे परमसंतोषको प्राप्त हुआ ॥१३०॥ सर्वज्ञ देवने लक्ष्मणके जीवका जो निरूपण किया था, वह मेघरथ नामका चक्रवर्तीका पुत्र होकर धर्मपर्ण आचरण करता हआ कितने ही उत्तम भवोंमें भ्रमणकर पुष्करद्वीप सम्बन्धी विदेह क्षेत्रके शतपत्र नामा नगरमें अपने योग्य समयमें जन्माभिषेक प्राप्तकर तीर्थकर और चक्रवर्ती पदको प्राप्त हो निर्वाण प्राप्त करेगा ॥१३१-१३।। और मैं भी सात वर्ष पूर्ण होते ही पुनर्जन्मसे रहित हो वहाँ जाऊँगा जहाँ भरत आदि मुनिराज गये हैं ॥१३४॥ इस प्रकार आगामी भवोंका वृत्तान्त जानकर जिसका सब संशय दूर हो गया था, तथा जो महाभावनासे सहित था ऐसा सुरेन्द्र सीतेन्द्र, श्री पद्मनाभ केवलीकी बार-बार स्तुतिकर तथा नमस्कारकर उनके अभ्युदय युक्त रहते हुए चैत्यालयोंकी वन्दना करनेके लिए चला गया ॥१३५-१३६।। वह अत्यन्त भक्त हो तीर्थंकरोंके निर्वाण-क्षेत्रों की पूजा करता, नन्दीश्वर द्वीपमें जिन-प्रतिभाओंकी अर्चा करता, देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान्को. निरन्तर मनमें धारण करता १. चक्रधरस्त्वसौ ज०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492