________________
त्रयोविंशोत्तरशतं पर्व
निर्दिष्टं सकलैनतेन भुवनः श्रीवर्द्धमानेन यत्
तवं वासवभूतिना निगदितं जम्बोः प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्तरवाग्मिना प्रकटितं पश्नस्य वृत्तं मुनेः
श्रेयःसाधुसमाधिवृद्धिकरणं सर्वोत्तम मङ्गलम् ॥१६७॥ ज्ञाताशेषकृतान्तसन्मुनिमनःसोपानपर्वावली
पारम्पर्यसमाधितं सुवचनं सारार्थमत्यद्भुतम् । आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनि
स्तस्मालचमणसेनसन्मुनिरदःशिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥१८॥ सम्यग्दर्शनशुद्धिकारणगुरुश्रेयस्करं पुष्कलं
विस्पष्टं परमं पुराणममलं श्रीमत्प्रबोधिप्रदम् । रामस्याद्भुतविक्रमस्य सुकृतो माहात्म्यसक्कीर्तनं
श्रोतव्यं सततं विचक्षणजनेरास्मोपकारार्थिभिः ॥१६॥
छन्दः (१)
हलचक्रभृतोर्द्विषोऽनयोश्च प्रथितं वृत्तमिदं समस्तलोके । कुशलं कलुषं च तत्र बुद्ध्या शिवमात्मीकुरुतेऽशिवं विहाय ॥१७॥ अपि नाम शिवं गुणानुबन्धि व्यसनस्फातिकरं शिवेतरम् । तद्विषयस्पृहया तदेति मन्त्रीमशिवं तेन न शान्तये कदाचित् ॥१७॥
वाला है ऐसा यह पद्मचरित मैंने भक्ति वश ही निरूपित किया है ॥१६६॥ श्री पद्ममुनिका जो चरित मूलमें सब संसारसे नमस्कृत श्रीवर्धमान स्वामीके द्वारा कहा गया, फिर इन्द्रभूति गणधरके द्वारा सुधर्मा और जम्बू स्वामीके लिए कहा गया तथा उनके बाद उनके शिष्योंके शिष्य श्री उत्तरवाग्मी अर्थात् श्रेष्ठवक्ता श्री कीर्तिधर मुनिके द्वारा प्रकट हुआ तथा जो कल्याण और साधुसमाधिकी वृद्धि करनेवाला है, ऐसा यह पद्मचरित सर्वोत्तम मङ्गल स्वरूप है ॥१६७॥ यह पद्मचरित, समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उत्तम मुनियोंके मनकी सोपान परम्पराके समान नाना पोंकी परम्परासे युक्त है, सुभाषितोंसे भरपूर है, सारपूर्ण है तथा अत्यन्त आश्चर्यकारी है। इन्द्र गुरुके शिष्य श्री दिवाकर यति थे, उनके शिष्य अर्हद्यति थे, उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य मैं रविषेण हूँ ॥१६८।। जो सम्यग् दर्शनकी शुद्धताके कारणोंसे श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यन्त स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्रीसम्पन्न है, रत्नत्रय रूप बोधिका दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्यस्वरूप श्री रामके माहाम्यका उत्तम कीर्तन करनेवाला है ऐसा यह पुराण आत्मोपकारके इच्छुक विद्वज्जनोंके द्वारा निरन्तर श्रवण करनेके योग्य है ॥१६६॥
बलभद्र नारायण और इनके शत्रु रावणका यह चरित्र समस्त संसारमें प्रसिद्ध है। इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकारके चरित्रोंका वर्णन है। इनमें बुद्धिमान् मनुष्य बुद्धि द्वारा विचार कर अच्छे अंशको ग्रहण करते हैं और बुरे अंशको छोड़ देते हैं ।।१७०॥ जो अच्छा चरित्र है वह गुणांको बढ़ानेवाला है और जो बुरा चरित्र है वह कष्टोंकी वृद्धि करनेवाला है, इनमें से जिस मनुष्यको जिस विषयकी इच्छा हो वह उसीके साथ मित्रताको करता है अर्थात् गुणोंको चाहने
वाला अच्छे चरित्रसे मित्रता बढ़ाता है और कष्ट चाहनेवाला बुरे चरित्रसे मित्रता करता है। Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org