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प्रयोविंशोत्तरशतं पर्व
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छन्दः (?) इति जीवविशुद्धिदानदत्तं परितः शास्त्रमिदं नितान्तरम्यम् । सकले भुवने रविप्रकाशं स्थितमुद्योतितसर्ववस्तुसिद्धम् ॥१८॥ द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीतेऽर्द्धचतुर्थवर्षयुक्ते । जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्वरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥१२॥
अनुष्टुप कुर्वन्त्वथात्र सान्निध्यं सर्वाः समयदेवताः । कुर्वाणाः सकलं लोकं जिनभक्तिपरायणम् ॥१३॥ कुर्वन्तु वचनै रक्षां समये सर्ववस्तुषु । सर्वादरसमायुक्ता भव्या लोकसुवत्सलाः ॥१८॥ व्यञ्जनान्तं स्वरान्तं वा किश्चिन्नामेह कीर्तितम् । अर्थस्य वाचकः शब्दः शब्दो वाक्यमिति स्थितम् ॥ लक्षणालङ्कृती वाच्यं प्रमाणं छन्द आगमः । सर्व चामलचित्तेन ज्ञेयमत्र मुखागतम् ।।१८६।। इदमष्टादश प्रोक्तं सहस्रागि प्रमागतः । शास्त्रमानुष्टुपश्लोकैस्त्रयोविंशतिसङ्गतम् ॥१८७॥ इत्याचे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते श्रीपद्मपुराणे बलदेवसिद्धिगमनाभिधान
नाम त्रयोविंशोत्तरशतं पर्व ॥१२२॥
॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः॥
सको ॥१८०। इस प्रकार यह शास्त्र जीवोंके लिए विशुद्धि प्रदान करनेमें समर्थ, सब ओरसे अत्यन्त रमणीय, और समस्त विश्वमें सूर्य के प्रकाशके समान सब वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाला है ॥१८१।। जिनसूर्य श्री वर्धमान जिनेन्द्रके मोक्ष जानेके बाद एक हजार दो सौ तीन वर्ष छह माह बीत जानेपर श्री पद्ममुनिका यह चरित्र लिखा गया है ॥१८२॥ मेरी इच्छा है कि समस्त श्रुतदेवता जिन शासन देव, निखिल विश्वको जिन-भक्तिमें तत्पर करते हुए यहाँ अपना सांनिध्य प्रदान करें ॥१८३॥ वे सब प्रकारके आदरसे युक्त, लोकस्नेही भव्य देव समस्त वस्तुओं के विषयमें अर्थात् सब पदार्थोके निरूपणके समय अपने वचनोंसे आगमकी रक्षा करें ॥१८४॥ इस ग्रन्थमें व्यञ्जनान्त अथवा स्वरान्त जो कुछ भी कहा गया है वही अर्थका वाचक शब्द है, और शब्दोंका समूह ही वाक्य है, यह निश्चित है ॥१८५शा लक्षण, अलंकार, अभिधेय, लक्ष्य और व्यङ्गयके भेदसे तीन प्रकारका वाच्य, प्रमाण, छन्द तथा आगम इन सबका यहाँ अवसरके अनुसार वर्णन हुआ है सो शुद्ध हृदयसे उन्हें जानना चाहिए ॥१८६॥ यह पद्मचरित प्रन्थ अनुष्टुप् श्लोकोंकी अपेक्षा अठारह हजार तेईस श्लोक प्रमाण कहा गया है ।। इस प्रकार पार्ष नामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराणमें बलदेवकी
सिद्धि-प्राप्तिका वर्णन करनेवाला एकसौ तेईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१२३॥
१. सिद्धे चरितं म० । २. Jain Education Internati28-3
वते म० । ३. वचने भ० । ४. सुखागतम् क०, सुसङ्गतम् ख.।
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