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पद्मपुराणे
किं चान्यद्धर्मार्थी लभते धर्म यशः परं यशसोऽर्थी। राज्यभ्रष्टो राज्यं प्राप्नोति न संशयोऽत्र कश्चित्कृत्यः ॥१५॥ इष्टसमायोगार्थी लभते तं क्षिप्रतो धनं धनार्थी। जायार्थी वरपत्नी पुत्रार्थी गोत्रनन्दनं प्रवरपुत्रम् ॥१६॥ अक्लिष्टकर्मविधिना लाभार्थी लाभमुत्तमं सुखजननम् । कुशली विदेशगमने स्वदेशगमनेऽथवापि सिद्धसमीहः ॥१६॥ व्याधिरुपैति प्रशमं ग्रामनगरवासिनः सुरास्तुष्यन्ति । नक्षत्रैः सह कुटिला अपि भान्वाद्या ग्रहा भवन्ति प्रीताः ॥१६२॥ दुश्चिन्तितानि दुर्भावितानि दुष्कृतशतानि यान्ति प्रलयम् । यत् किञ्चिदपरमशिवं तत्सर्व क्षयमपैति पद्मकथाभिः ॥१६३॥ यद्वा निहितं हृदये साधु तदाप्नोति रामकीर्तनासक्तः । इष्टं करोति भक्तिः सुदृढा सर्वज्ञभावगोचरनिरता ॥१६॥ भवशतसहस्रसञ्चितमसौ हि दुरितं तृणेढि जिनवरभक्त्या । व्यसनार्णवमुत्तीर्य प्राप्नोत्यहत्पदं सुभावः क्षिप्रम् ॥१६५॥
शार्दूलविक्रीडितम् एतत् तत्सुसमाहितं सुनिपुणं दिव्यं पवित्राक्षरं
नानाजन्मसहस्रसञ्चितघनक्लेशौघनिर्णाशनम् । आल्यानैर्विविधैश्चितं सुपुरुषव्यापारसङ्कीर्तनं
भव्याम्भोजपरमहर्षजननं सकीर्तितं भक्तितः ॥१६६॥
पुण्य बढ़ता है, तथा तलवार खींचकर हाथमें धारण करनेवाला भी शत्रु उसके साथ वैर नहीं करता है, अपितु शान्तिको प्राप्त हो जाता है ॥१५७-१५८।। इसके सिवाय इसके बाँचने अथवा सुननेसे धर्मका अभिलाषी मनुष्य धर्मको पाता है, यशका अभिलाषी परमयशको पाता है,
राज्यसे भ्रष्ट हआ मनुष्य पुनः राज्यको प्राप्त करता है इसमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए ॥१५६।। इष्ट संयोगका अभिलाषी मनुष्य शीघ्र ही इष्टजनके संयोगको पाता है, धनका अर्थी धन पाता है। स्त्रीका इच्छुक उत्तम स्त्री पाता है और पुत्रका अर्थी गोत्रको आनन्दित करनेवाला उत्तम पुत्र पाता है ॥१६०॥ लाभका इच्छुक सरलतासे सुख देनेवाला उत्तम लाभ प्राप्त करता है, विदेश जानेवाला कुशल रहता है और स्वदेशमें रहनेवालेके सब मनोरथ सिद्ध होते हैं ॥१६१।। उसकी बीमारी शान्त हो जाती है, ग्राम तथा नगरवासी देव संतुष्ट रहते हैं, था नक्षत्रोंके साथ साथ सूर्य आदि कुटिल ग्रह भी प्रसन्न हो जाते हैं ॥१६२॥ रामकी कथाओंसे श्चन्तित, तथा दुर्भावित सैकड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा इनके सिवाय जो कुछ अन्य अमङ्गल हैं वे सब क्षयको प्राप्त हो जाते हैं ॥१६३॥ अथवा हदयमें जो कुछ उत्तम बात है रामकथाके कीर्तनमें लीन मनुष्य उसे अवश्य पाता है, सो ठीक ही है क्योंकि सर्वज्ञदेव सम्बन्धी सुदृढ़ भक्ति इष्टपूर्ति करती ही है ॥१६४॥ उत्तम भावको धारण करनेवाला मनुष्य, जिनेन्द्रदेवकी भक्तिसे लाखों भावोंमें संचित पाप कर्मको नष्ट कर देता है, तथा दुःख रूपी सागरको पारकर शीघ्र ही अर्हन्त पदको प्राप्त करता है ॥१६५॥
ग्रन्थकर्ता श्री रविषेणाचार्य कहते हैं कि बड़ी सावधानीसे जिसका समाधान बैठाया गया है, जो दिव्य है, पवित्र अक्षरोंसे सम्पन्न है, नाना प्रकारके हजारों जन्मोंमें संचित अत्यधिक क्लेशोंके समूहको नष्ट करनेवाला है, विविध प्रकारके आख्यानों-अवान्तर कथाओंसे व्याप्त है, सत्पुरुषों की चेष्टाओंका वर्णन करनेवाला है, और भव्य जीवरूपी कमलोंके परम हर्षको करने
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