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प्रयोविंशोत्तरशतं पर्व
११.
तत्रैकं दुर्लभं प्राप्य 'पात्रदानोदयोपमम् । बहुशाखोपशाखाव्यमनोकहमिमे स्थिताः ॥१५॥ ततो जनकपुत्रेण व्रजता कोशला पुरीम् । दृष्टास्ते मानसे चास्य जातमेतत्सुकर्मणः ॥१६॥ इमे समयरतार्थमिहास्थुर्विजने वने । प्राणसाधारणोच्चारं कारः क नु साधवः ॥१७॥ इति सञ्चिन्त्य चात्यन्तनिकटं परमं पुरम् । कृतं सविषयं तेन सद्वियोदारशक्तिना ॥१८॥ स्थाने स्थाने च घोषाद्यसन्निवेशानदर्शयत् । स्वभावार्पितरूपश्च प्राणमद् विनयी मुनीन् ।।१६। काले देशे च भावेन सतो गोचरमागतान् । “पर्युपास्त यथान्यायं सम्मदी परिवर्गवान् ।।१०।। पुनश्वानुदकेऽरण्ये पर्युपासिष्ट संयतान् । अन्यांश्च भुवि सक्लिष्टान् साधूनक्लिष्टसंयमान् ॥१०॥ पुण्यसागरवाणिज्यसेवका मुक्तिभावने । दृष्टान्तत्वेन वक्तव्यास्तस्य धर्मानुरागिणः ॥१०॥ अन्यदोद्यानयातोऽसौ यथासुखमवस्थितः । शयने श्रीमान्मालिन्या पविना कालमाहृतः ॥१०३॥ ततः साधुनदानोत्थपुण्यतो मेरुदक्षिणे । कुरो जात स्त्रिपल्यायुर्दिव्यलक्षणभूषितः॥१०॥ पात्रदानफलं तत्र महाविपुलतां गतम् । समं सुन्दरमालिन्या भुङ्क्तेऽसौ परमद्यतिः ॥१०५॥ पात्रभूतान्नदानाच्च शक्त्याख्यास्तर्पयन्ति से । ते भोगभूमिमासाद्य प्राप्नुवन्ति परं पदम् ।।१०६॥
स्वर्गे भोगं प्रभुञ्जन्ति भोगभूमेश्च्युता नराः । तत्रस्थानां स्वभावोऽयं दानर्भोगस्य सम्पदः ॥१०७॥ काल आगया ॥१४॥ उस रेगिस्तानमें जिसका मिलना अत्यन्त कठिन था तथा जो पात्र दानसे प्राप्त होनेवाले अभ्युदयके समान जान पड़ता था एवं जो अनेक शाखाओं और उपशाखाओंसे युक्त था ऐसे एक वृक्षको पाकर उसके आश्रय उक्त तीनों मुनिराज ठहर गये ॥६५
तदनन्तर अयोध्यापुरीको जाते समय जनकके पुत्र भामण्डलने वे तीनों मुनिराज देखे। देखते ही इस पुण्यात्माके मनमें यह विचार आया कि ये मुनि, आचारकी रक्षाके निमित्त इस निर्जन वनमें ठहर गये हैं परन्तु प्राण धारणके लिए आहार कहाँ करेंगे ? ॥६६-६७॥ ऐसा विचारकर सद्विद्याको उत्तम शक्तिसे युक्त भामण्डलने बिलकुल पासमें एक अत्यन्त सुन्दर नगर बसाया जो सब प्रकारको सामग्रीसे सहित था, स्थान-स्थानपर उसने घोष-अहीर आदिके रहनेके ठिकाने दिखलाये । तदनन्तर अपने स्वाभाविक रूपमें स्थित हो उसने विनय पूर्वक मुनियोंके लिए नमस्कार किया ।।६८-६६॥ वह अपने परिजनोंके साथ वहीं रहने लगा तथा योग्य देश कालमें दृष्टिगोचर हुए सत्पुरुषोंको भावपूर्वक न्यायके साथ हर्षसहित भोजन कराने लगा ॥१००। इस निर्जन वनमें जो मुनिराज थे उन्हें तथा पृथिवीपर उत्कृष्ट संयमको धारण करनेवाले जो अन्य विपत्तिग्रस्त साधु थे उन सबको वह आहार आदि देकर संतुष्ट करने लगा ॥१०१॥ मुक्तिकी भावना रख पुण्यरूपी सागरमें वाणिज्य करनेवाले मनुष्योंके जो सेवक हैं धर्मानुरागी भामण्डलको उन्हींका दृष्टान्त देना चाहिए। अर्थात् मुनि तो पुण्यरूपी सागरमें वाणिज्य करनेवाले हैं और भामण्डल उनके सेवकके समान हैं ।।१०२।। किसी एक दिन भामण्डल उद्यानमें गया था वहाँ अपनी मालिनी नामक स्त्रीके साथ वह शय्यापर सुखसे पड़ा था कि अचानक वनपात होनेसे उसको मृत्यु हो गई ॥१०३॥ तदनन्तर मुनि-दानसे उत्पन्न पुण्यके प्रभावसे वह मेरु पर्वतके दक्षिणमें विद्यमान देवकुरुमें तीन पल्यकी आयुवाला दिव्य लक्षणोंसे भूषित उत्तम आर्य हुआ ॥१०४॥ इस तरह उत्तम दीप्तिको धारण करनेवाला वह आये, अपनी सुन्दर मालिनी नीके साथ उस देवकुरुमें महाविस्तारको प्राप्त हुए पात्रदानके फलका उपभोग कर रहा है ॥१०॥ जो शक्तिसम्पन्न मनुष्य, पात्रोंके लिए अन्न देकर संतुष्ट करते हैं वे भोगभूमि पाकर परम पदको प्राप्त होते हैं ॥१०६।। भोगभूमिसे च्युत हुए मनुष्य स्वर्गमें भोग भोगते
१. प्रान्तदीनोच्चयोपमम् म० । प्रान्तदीनोचयोपमम् (१)ज०, क० । २. सविषसम्पन्नं (१) म., ३. सतां गोचरमागतां म । सतां गोचरमागतं ज०। ४. भोजयामास, श्रीटि०। ५. ततो नगरवाणिज्य
ज०, पुण्यसागर-ख०। ६. शक्तिभावना क०।७ प्राप्तोऽसौ म.] Jain Education Internation93-3
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