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द्वाविंशत्युत्तरशतं प
डा रामं समासीन घातिकर्मविनाशनम् । प्रणेमुर्भक्तिसम्पश्चाश्चारणर्षिसुरासुराः ॥ ७१ ॥ तस्य जातात्मरूपस्य वन्द्यस्य भुवनेश्वरैः । जातं समवसरणं समग्रं परमेष्ठिनः ॥ ७२ ॥ ततः स्वयम्प्रभाभिख्यः सीतेन्द्रः केवलार्चनम् । कृत्वा प्रदक्षिणीकृत्य मुनिमत्तमयन्मुहुः ॥७३॥ क्षमस्व भगवन् दोषं कृतं दुर्बुद्धिना मया । प्रसीद कर्मणामन्तं यच्छ महामपि द्रुतम् ॥ ७४ ॥ आर्यागीतिः
एवमनन्तश्रीति - कान्तियुतो नूनमनार्त्तमूर्त्तिर्भगवान् । कैवल्यसुखसमृद्धिं बलदेवोऽवाप्तवाजिनोत्तमभक्त्या || ७५ || पूजामहिमानमरं कृत्वा स्तुत्वा प्रणम्य भक्त्या परया । विहरति श्रमणरवौ जग्मुर्देवा यथाक्रमं प्रमदयुताः ॥ ७६ ॥
इत्यार्षे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे : पद्मस्य केवलोत्पत्त्यभिधानं नाम द्वाविंशत्युत्तरशतं पर्व ॥ १२२ ॥
उद्यत थे ऐसे सब इन्द्र बड़े वैभव के साथ वहाँ आ पहुँचे ||७०|| घातिया कर्मोंका नाश करने वाले सिंहासनासीन रामके दर्शन कर चारणऋद्धिधारी मुनिराज तथा समस्त सुर और असुरोंने उन्हें प्रणाम किया || ७१ || जिन्हें आत्मरूपकी प्राप्ति हुई थी, तथा जो संसारके समस्त इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय थे ऐसे परमेष्ठी पदको प्राप्त श्री रामके सम्पूर्ण समवसरणकी रचना हुई ॥ ७२ ॥ तदनन्तर स्वयंप्रभ नामक सीतेन्द्र ने केवलज्ञानकी पूजा कर मुनिराजको प्रदक्षिणा दो और बार-बार क्षमा कराई ॥ ७३ ॥ | उसने कहा कि हे भगवन् ! मुझ दुर्बुद्धिके द्वारा किया हुआ दोष क्षमा कीजिए, प्रसन्न हूजिए और मेरे लिए भी शीघ्र ही कर्मोंका अन्त प्रदान कीजिए अर्थात् मेरे कर्मों का क्षय कीजिए ॥ ७४ ॥
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गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार अनन्त लक्ष्मी द्युति और कान्तिसे सहित तथा प्रसन्न मुद्रा धारक भगवान् बलदेवने श्री जिनेन्द्रदेवकी उत्तम भक्ति से केवलज्ञान तथा अनन्त सुख रूपी समृद्धिको प्राप्त किया ॥७५॥ मुनियों में सूर्य के समान तेजस्वी श्री राम मुनि जब विहार करनेको उद्यत हुए तब हर्षसे भरे देव शीघ्र ही भक्तिपूर्वक पूजाकी महिमा, स्तुति तथा प्रणाम कर यथाक्रम से अपने-अपने स्थानोंपर चले गये ||७६ ||
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इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध श्री रविषेणाचार्य द्वारा रचित पद्मपुराण में श्री राममुनिको केवलज्ञान उत्पन्न होनेका वर्णन करनेवाला एकसौ बाईसवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥ १२२॥
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