Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ पद्मपुराणे एतस्मिन्नन्तरे दुःखमनुभूय निकाचितम् । उद्गत्य प्राप्य मानुष्यमुपेमः शरणं जिनम् ||५४|| अहोऽतिपरमं देव त्वयाऽस्मभ्यं हितं कृतम् । यत्सम्यग्दर्शने रम्ये समेत्य विनियोजिताः ॥५५॥ हे सीतेन्द्र महाभाग ! गच्छ गच्छारणाच्युतम् । शुद्धधर्मफलं स्फीतमनुभूय शिवं व्रज ॥ ५६ ॥ एवमुक्तः सुरेन्द्रोऽसौ शोकहेतुविवर्जितः । तथापि परमर्द्धिश्च सः शोचन्नान्तरात्मना ||५७ || दस्वा तेषां समाधानं पुनर्बोधप्रदं शुभम् । महासुकृतभाग्धीरः समारोह निजास्पदम् ||५८ || शङ्कितात्मा च संवृत्तश्चतुःशरणतत्परः । बहुशश्च करोति स्म पञ्चमेरुप्रदक्षिणम् ||५६ || तीच नारकं दुःखं स्मृत्वा च विबुधोत्तमः । वेपितात्मा विमानेऽपि ध्वनिमालब्ध तं सुधीः || ६० ॥ प्रकम्पमानहृदयः श्रीमच्चन्द्रनिभाननः । उद्युक्तो भरतक्षेत्रे भूयोऽवतरितु सुधीः ॥ ६१ ॥ सम्पतद्भिर्विमानौघैः समीरसमवर्त्तिभिः । तुरङ्गमहरिक्षीबमतङ्गजघटाकुलैः ॥६२॥ नानावर्णाम्बरधरैर्ह रिस्रङ्मुकुटोज्ज्वलैः । विचित्रवाहनारूढैर्ध्वजच्छन्नातिशोभितैः ॥६३॥ शतघ्नीशक्तिचक्रासिधनुः कुन्तगदाधरैः । व्रजद्भिः सर्वतः कान्तैरमरैः साप्सरोगणैः ॥ ६४ ॥ मृदङ्गदुन्दुभिस्वानैर्वेणुवीणास्वनान्वितैः । जयनन्दरखोन्मिश्रैरापूर्यत तदा नभः ॥ ६५॥ जगाम शरणं पद्मं सीतेन्द्रः परमोदयः । कृताञ्जलिपुटो भक्त्या प्रणनाम पुनः पुनः ॥ ६६ ॥ एवं च स्तवनं कर्त्तमारेभे विनयान्वितः । संसारतारणोपायप्रतिपत्तिदृढाशयः ॥६७॥ ४१४ उन लोगोंने वह उत्तम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया जो कि उन्हें पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था ||५३|| उन्होंने कहा कि इस बीचमें जिसका छूटना अशक्य है ऐसे इस दुःखको भोगकर जब यहाँ से निकलेंगे तब मनुष्य भव धारणकर श्री जिनेन्द्र देवकी शरण रहेंगे || ५४ || अहो देव ! तुमने हम सबका बड़ा हित किया जो यहाँ आकर उत्तम सम्यग्दर्शन में लगाया है || ५५ || हे महाभाग ! सीतेन्द्र ! जाओ जाओ अपने आरणाच्युत कल्पको जाओ और शुद्ध धर्मका विशाल फल भोगकर मोक्षको प्राप्त होओ ||५६ ॥ इस प्रकार उन सबके कहनेपर यद्यपि वह सीतेन्द्र शोकके कारणों से रहित हो गया था तथापि परम ऋद्धिको धारण करनेवाला वह मन ही मन शोक करता जाता था || ५७|| तदनन्तर महान पुण्यको धारण करनेवाला वह धीर-वीर सुरेन्द्र, उन सबके लिए बोधि दायक शुभ उपदेश देकर अपने स्थानपर आरूढ हो गया || ५६८ || नरक से निकलकर जिसकी आत्मा अत्यन्त भयभीत हो रही थी ऐसा वह सीतेन्द्र मन ही मन अरहन्त सिद्ध साधु और केवली प्रणीत धर्म इन चारकी शरणको प्राप्त हुआ और अनेकों बार उसने मेरु पर्वत की प्रदक्षिणाएँ दीं ॥५६|| नरकगतिके उस दुःखको देखकर, स्मरणकर, तथा वहाँके शब्दका ध्यानकर वह सुरेन्द्र विमान में भी काँप उठता था || ६०|| जिसका हृदय काँप रहा था तथा जिसका मुख शोभासम्पन्न चन्द्रमाके समान था, ऐसा वह बुद्धिमान् सुरेन्द्र फिरसे भरत क्षेत्रमें उतरनेके लिए उद्यत हुआ || ६१ | | उस समय वायुके समान वेगशाली घोड़े, सिंह तथा मदोन्मत्त हाथियोंके समूहसे युक्त, चलते हुए विमानोंसे और नाना रंगके वस्त्रोंको धारण करने वाले, वानर तथा माला आदिके चिह्नोंसे युक्त मुकुटोंसे उज्ज्वल, नाना प्रकारके वाहनोंपर आरूढ़ पताका तथा छत्र आदिसे शोभित शतघ्नी, शक्ति, चक्र, असि, धनुष, कुन्त और गदाको धारण करने वाले, सब ओर गमन करते हुए, अप्सराओंके समूह से सहित सुन्दर देवोंसे और बाँसुरी तथा वीणाके शब्दोंसे सहित तथा जय जयकार, नन्द, वर्धस्व आदि शब्दों से मिश्रित मृदङ्ग और दुन्दुभि के नादसे आकाश भर गया था ||६२-६५॥ अथानन्तर परम अभ्युदयको धारण करनेवाला सीतेन्द्र श्री राम केवलीकी शरण में गया । वहाँ जाकर उसने हाथ जोड़ भक्तिपूर्वक बार-बार प्रणाम किया ||६६ || तदनन्तर सँसार-सागरसे पार होने के उपाय जाननेके लिए जिसका अभिप्राय दृढ़ था ऐसे उस विनयी सीतेन्द्र ने श्री राम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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