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त्रयोविंशोत्तरशतं पर्व
अथ संस्मृत्य सीतेन्द्रो लक्ष्मीधरगुणार्णवम् । प्रतिबोधयितु ं वान्छन् प्रतस्थे वालुकाप्रभाम् ||१|| मानुषोत्तरमुल्लङ्घ्य गिरिं मर्त्यसुदुर्गमम् । रत्नप्रभामतिक्रम्य शर्करां चापि मेदिनीम् ||२|| प्राप्तो ददर्श बीभत्सां कृच्छ्रातिशयदुःसहाम् । पापकर्मसमुद्भूतामवस्थ नरकश्रिताम् ||३|| असुरत्वं गतो योऽसौ शम्बूको लक्ष्मणा हतः । व्याधदारकवत् सोऽत्र हिंसाक्रीडनमाश्रितः ॥४॥ आतृणेद् कांश्चिदुद्वाध्य कांश्चिद्भृत्यैरघातयत् । नारकानावृतान् कांश्चित्परस्परमयू युधत् ॥५॥ केचिद् बध्वाग्निकुण्डेषु क्षिप्यन्ते विकृतस्वराः । शाल्मलीषु नियुज्यन्ते केचित् प्रत्यङ्गकण्टकम् ॥ ६ ॥ ताढ्यन्तेऽयोमयैः केचिन्मुसलैरभितः स्थितैः । स्वमांसरुधिरं केचित्खायन्ते निर्दयैः सुरैः ॥७॥ गाढप्रहारनिर्भिन्नाः कृतभूतललोठनाः । श्वमार्जारह रिव्याघ्रैर्भचयन्ते पक्षिभिस्तथा ||८|| केचिच्छूलेषु भिद्यन्ते ताड्यन्ते घनमुद्गरैः । कुम्भ्यामन्ये निधीयन्ते ताम्रादिक लिलाम्भसि ||१|| करपत्रैविंदायन्ते बद्ध्वा दारुषु निश्चलाः । केचित्केश्चिश्च पाय्यन्ते ताम्रादिकलिलं बलात् ||१०|| केचिद्यन्त्रेषु पीड्यन्ते हन्यन्ते सायकैः परे । दन्तातिरसनादीनां प्राप्नुवन्स्युद्धतिं परे ॥११॥ एवमादीनि दुःखानि विलोक्य नरकाश्रिताम् । उत्पन्नपुरुकारुण्यः सोऽभूदमरपुङ्गवः || १२ ||
अथानन्तर सीतेन्द्र, लक्ष्मणके गुणरूपी सागरका स्मरणकर उसे संबोधनेकी इच्छा करता हुआ बालुकाप्रभाकी ओर चला ॥१॥ मनुष्योंके लिए अत्यन्त दुर्गम मानुषोत्तर पर्वतको लाँघकर तथा क्रमसे नीचे रत्नप्रभा और शर्करा प्रभाकी भूमिको भी उल्लंघनकर वह तीसरी बालुकाप्रभा भूमिमें पहुँचा । वहाँ पहुँचकर उसने नारकियोंकी अत्यन्त घृणित कष्टकी अधिकता से दुःसह एवं पाप कर्मसे उत्पन्न अवस्था देखी ॥२- ३ ॥ लक्ष्मणके द्वारा मारा गया जो शम्बूक असुरकुमार हुआ था वह शिकारीके पुत्रके समान इस भूमिमें हिंसापूर्ण क्रीड़ा कर रहा था ||४|| वह कितने ही नारकियों को ऊपर बाँधकर स्वयं मारता था, कितनों हो को सेवकों से मरवाता था और घिरे हुए कितने ही नारकियोंको परस्पर लड़ाता था || ५|| विरूप शब्द करने वाले कितने ही नारकी बाँधकर अग्निकुण्डों में फेंके जाते थे, और कितने ही जिनके अङ्ग भङ्गमें काँटा लग रहे थे ऐसे सेमरके वृक्षोंपर चढ़ाये - उतारे जाते थे ||६|| कितने ही सब ओर खड़े हुए नारकियोंके द्वारा लोह-निर्मित मूसलोंसे कूटे जाते थे और कितने ही को निर्दय देवों के द्वारा अपना मांस तथा रुधिर खिलाया जाता था ||७|| गाढ़ प्रहारसे खण्डित हो पृथिवी - तलपर लोटने वाले नारकी कुत्ते, बिलाव, सिंह, व्याघ्र तथा अनेक पक्षियोंके द्वारा खाये जा रहे थे || || कितने ही शूलीपर चढ़ा कर भेदे जाते थे, कितने ही घनों और मुहरोंसे पीटे जाते थे, कितने ही ताबाँ आदिके स्वरस रूपी जलसे भरी कुम्भियों में डाले जाते थे ॥ ६ ॥ लकड़ियाँ बाँध देनेसे निश्चल खड़े हुए कितने नारकी करोंतों से बिदारे जाते थे, और कितने ही नारकियोंको जबरदस्ती ताम्र आदि धातुओंका पिघला द्रव पिलाया जाता था || १०|| कितने ही कोल्हुओंमें पेले जाते थे, कितने ही बाणोंसे छेदे जाते थे, और कितने ही दाँत, नेत्र तथा जिह्वाके उपाड़नेका दुःख प्राप्त कर रहे थे || ११|| इस प्रकार नारकियोंके दुःख देखकर सीतेन्द्रको बहुत भारी दया उत्पन्न हुई ॥१२॥
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१. शर्कराप्रभां म० ज० । २. वालुका म० ज०, ख० । ३. वधाग्निकुण्डेषु म० ।
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