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पद्मपुराणे
तत्रावतरति स्फीतं तन्मयां नन्दनायते । वनं यत्र स्थितः साधुयानयोगेन राघव ॥२८॥ बहुपुष्परजोवाही बवौ वायुः सुखावहः । कोलाहलरवो रम्यः पक्षिणां सर्वतोऽभवत् ॥२६॥ प्रबलं चञ्चरीकाणां चञ्चलं बकुले कुलम् । प्रघुष्टं 'परपुष्टानां पुष्टं जुष्टं कदम्बकैः ॥३०॥ रुरुवुः सारिकाश्चारुनानास्वरविशारदाः । चिक्रीडर्विशदस्वानाः शुकाः सम्प्राप्तकिंशुकाः ॥३॥ मञ्जयः सहकाराणां विरेजुर्भमरान्विताः । तीरका इव संशाता नूतनाश्चित्तजन्मनः ॥३२॥ कुसुमैः कर्णिकाराणामरण्यं पिञ्जरोकृतम् । पीतपिष्टातकेनेव क क्रीडनमुचतम् ॥३३॥ अनपेक्षितगण्डूषमदिरानेकदोहदः । ववृषे बकुलः प्रावृट् नभोभवकुलैरिव ॥३४॥ जानकीवेषमास्थाय कामरूपः सुरोत्तमः । समीपं रामदेवस्य मन्थरं गन्तुमुद्यतः ॥३५॥ मनोऽभिरमणे तस्मिन् वने जनविवर्जिते । विचित्रपादपनाते सर्वतुकुसुमाकुले ।।३।। सीता किल महाभागा पर्यटन्ती सुखं वनम् । अकस्मादग्रतः साधोः सुन्दरी समश्यत ॥३७॥ अवोचत च रष्टोऽसि कथञ्चिदपि राघव | भ्रमन्त्या विष्टपं सर्व मया पुण्येन भूरिणा ॥३८॥ विप्रयोगोमिसकीणे स्नेहमन्दाकिनीहदे । प्राप्तां सुवदनां नाथ मां सन्धारय साम्प्रतम् ॥३॥ विचेष्टितैः सुमिष्टोक्तत्विा मुनिमकम्पनम् । मोहपापार्जितस्वान्ता पुरःपार्वानुवर्तिनी ॥४०॥ मनोभवज्वरग्रस्ता वेपमानशरीरिका । स्फुरितारुणतुङ्गोष्ठी जगादेवं मनोरमा ॥४१॥
अहं देवासमोच्येव तदा पण्डितमानिनी । दीक्षिता स्वां परित्यज्य विहरामि तपस्विनी ॥४२॥ प्रकारका अन्य विचारकर सीताका जीव स्वयंप्रभ देव, अन्य देवोंके साथ आरुणाच्युत कल्पसे उतरकर सौधर्म कल्पमें आया ॥२७॥ तदनन्तर सौधर्म कल्पसे चलकर बह पृथिवीके उस विस्तृत वनमें उतरा जो कि नन्दन वनके समान जान पड़ता था और जहाँ महामुनि रामचन्द्र ध्यान लगाकर विराजमान थे ॥२८॥ उस वनमें अनेक फूलोंकी परागको धारण करनेवाली सुखदायक वायु बह रही थी और सब ओर पक्षियोंका मनोहर कल-कल शब्द हो रहा था ।।२६॥ वकुल वृक्षके ऊपर भ्रमरोंका सबल समूह चञ्चल हो रहा था तथा कोकिलाओंके समूह जोरदार मधुर शब्द कर रहे थे ॥३०॥ नाना प्रकारके सुन्दर शब्द प्रकट करने में निपुण मैनाएँ मनोहर शब्द कर रहीं थीं और पलाश वृक्षोंपर बैठे शुक स्पष्ट शब्दोंका उच्चारण करते हुए क्रीड़ा कर रहे थे ॥३॥ भ्रमरोंसे सहित आमोंकी मञ्जरियाँ कामदेवके नूतन तीक्ष्ण वाणोंके समान जान पड़ती थीं ॥३२॥ कनेरके फूलोंसे पीला-पीला दिखनेवाला वन ऐसा जान पड़ता था मानो पीले रङ्गके चूर्णसे क्रीड़ा करनेके लिए उद्यत ही हुआ हो ॥३३॥ मदिराके गण्डूषरूपी दौहदकी उपेक्षा करनेवाला वकुल वृक्ष ऐसा बरस रहा था जैसा कि वर्षा काल मेघोंके समूहसे बरसता है ॥३४||
अथानन्तर इच्छानुसार रूप बदलनेवाला वह स्वयंप्रभ प्रतीन्द्र जानकीका वेष रख मदमाती चालसे रामके समीप जानेके लिए उद्यत हुआ ॥३५।। वह वन मनको हरण करनेवाला, एकान्त, नाना प्रकारके वृक्षोंसे युक्त एवं सब ऋतुओंके फूलोंसे व्याप्त था ॥३६॥ तदनन्तर सुखपूर्वक वनमें घूमती हुई सीता महादेवी, अकस्मात् उक्त साधुके आगे प्रकट हुई ॥३७॥ वह बोली कि हे राम ! समस्त जगत्में घूमती हुई मैंने बहुत भारी पुण्यसे जिस किसी तरह आपको देख पाया है ॥३८॥ हे नाथ ! वियोगरूपी तरङ्गोंसे व्याप्त स्नेहरूपी गङ्गाकी धारमें पड़ी हुई मुझ सुवदनाको आप इस समय सहारा दीजिए-डूबनेसे बचाइए.॥३॥ जब उसने नाना प्रकारकी चेष्टाओं और मधुर वचनोंसे मुनिको अकम्प समझ लिया तब मोहरूपी पापसे जिसका चित्त प्रसा था, जो कभी मुनिके आगे खड़ी होती थी और कभी दोनों वगलोंमें जा सकती थी, जो काम ज्वरसे ग्रस्त थी, जिसका शरीर काँप रहा था और जिसका लाल-लाल ऊँचा ओंठ फड़क रहा था ऐसी मनोहारिणी सीता उनसे बोली कि हे देव, अपने आपको
१. कोकिलानाम् । २. रुरुदुः म । ३. वाणा इव । ४. तीक्ष्णा । ५. वकुलैः म०। Jain Education International
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