Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 422
________________ द्वाविंशत्युत्तरशतं पर्व भगवान् बलदेवोऽसौ प्रशान्तरतिमत्सरः । अस्युनतं तपश्चके सामान्यजनदुःसहम् ॥१॥ 'अष्टमायुपवासस्थः खमध्यस्थे विरोचने । पर्युपास्यत गोपाधररण्ये गोचरं भ्रमन् ॥२॥ व्रतगुप्तिसमित्याचसमयज्ञो जितेन्द्रियः। साधुवात्सल्यसम्पन्नः स्वाध्यायनिरतः सुकृत् ॥३॥ लब्धानेकमहालब्धिरपि निर्वि क्रियः परः । परीषहभटं मोहं पराजेतुं समुद्यतः ॥४॥ तपोऽनुभावतः शान्ताः सिं हैश्च वीक्षितः । विस्तारिलोचनोद्ग्रीवेसुंगाणां च कदम्बकैः ॥५॥ निःश्रेयसगतस्वान्तः स्पृहासक्तिविवर्जितः । प्रयत्नपरमं मार्ग विजहार वनान्तरे ॥६॥ शिलातलस्थितो जातु पर्यङ्कासनसंस्थितः । ध्यानान्तरं विवेशासौ भानुर्मेधान्तरं यथा ॥७॥ मनोज्ञे क्वचिदुद्देशे प्रलम्बितमहाभुजः । अस्थान्मन्दरनिष्कम्पचित्ताः प्रतिमया प्रभुः ॥॥ युगान्तवःक्षणः श्रीमान् प्रशान्तो विहरन् क्वचित् । वनस्पतिनिवासाभिः सुरस्त्रीभिरपूज्यत ॥६।। एवं निरुपमात्मासौ तपश्चके तथाविधम् । कालेऽस्मिन् दुःषमे शक्यं ध्यातुमप्यपनयत् ॥१०॥ ततोऽसौ विहरन् साधुः प्राप्तः कोटिशिलां क्रमात् । नमस्कृत्योद्धता पूर्व भुजाभ्यां लचमणेन या॥११॥ महात्मा तां समारुह्म प्रच्छिन्नस्नेह बन्धनः । तस्थौ प्रतिमया रात्री कर्मक्षपणकोविदः ॥१२॥ अथानन्तर जिनके राग-द्वेष शान्त हो चुके थे ऐसे श्री भगवान् बलदेवने सामान्य मनुष्यों के लिए अशक्य अत्यन्त कठित तप किया ॥१॥ जब सूर्य आकाशके मध्यमें चमकता था तब तेल आदिका उपवास धारण करनेवाले राम वनमें आहारार्थ भ्रमण करते थे और गोपाल आदि उनकी उपासना करते थे ।।२।। वे व्रत गुप्ति समिति आदिके प्ररूपक शास्त्रोंके जाननेवाले थे, जितेन्द्रिय थे, साधुओंके साथ स्नेह करनेवाले थे, स्वाध्यायमें तत्पर थे, अनेक उत्तम कार्यों के विधायक थे, अनेक महाऋद्धियाँ प्राप्त होनेपर भी निर्विकार थे, अत्यन्त श्रेष्ठ थे, परीषह रूपी योद्धा तथा मोहको जीतनेके लिए उद्यत रहते थे, तपके प्रभावसे व्याघ्र और सिंह शान्त होकर उनकी ओर देखते थे, जिनके नेत्र हर्षसे विस्तृत थे तथा जिन्होंने अपनी गरदन ऊपरको ओर उठा ली थी ऐसे मृगोंके झुण्ड बड़े प्रेमसे उन्हें देखते थे, उनका चित्त मोक्षमें लग रहा था, तथा जो इच्छा और आसक्तिसे रहित थे। इस प्रकार उत्तम गुणोंको धारण करनेवाले भगवान् राम वनके मध्य बड़े प्रयत्नसे-ईर्यासमितिपूर्वक मार्गमें विहार करते थे ॥३-६॥ कभी शिलातलपर खड़े होकर अथवा पर्यङ्कासनसे विराजमान होकर उस तरह ध्यानके भीतर प्रवेश करते थे जिस तरह कि सूर्य मेघोंके भीतर प्रवेश करता है ॥७॥ वे प्रभु कभी किसी सुन्दर स्थानमें दोनों भुजाएँ नीचे लटकाकर मेरुके समान निष्कम्पचित्त हो प्रतिमायोगसे विराजमान होते थे ।।८।। कहीं अत्यन्त शान्त एवं वैराग्य रूपी लक्ष्मीसे युक्त राम जूडा प्रमाण भूमिको देखते हुए विहार करते थे और वनस्पतियोंपर निवास करनेवाली देवाङ्गनाएँ उनकी पूजा करती थीं ॥६॥ इस प्रकार अनुपम आत्माके धारक महामुनि रामने जो उस प्रकार कठिन तप किया था, इस दुःषम नामक पञ्चम कालमें अन्य मनुष्य उसका ध्यान नहीं कर सकते हैं ।।१०।। तदनन्तर विहार करते हुए राम क्रम-क्रमसे उस कोटिशिलापर पहुँचे जिसे पहले लक्ष्मणने नमस्कारकर अपनी भुजाओंसे उठाया था ॥११॥ जिन्होंने स्नेहका बन्धन तोड़ दिया था तथा जो कर्मोंका क्षय करनेके लिए उद्यत थे ऐसे महात्मा श्री राम उस शिलापर आरूढ़ हो रात्रिके समय प्रतिमायोगसे विराजमान हुए ॥१२॥ १. अष्टम्याद्युप-म० । २. स्वमध्यस्थे म । ३. प्राप्त-म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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