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एकविंशोत्तरशतं पर्व
रामोsपि कृत्वा समयोदितार्थं विवक्तशय्यासन मध्यवर्ती ।
तपोऽतिदीप्तो विजहार युक्तं महीं रविः प्राप्त इव द्वितीयः ॥ २८ ॥
इत्यार्षे श्रीरविषेणाचार्य प्रोक्ते द्मपुराणे दानप्रसङ्गाभिधानं नामैकविंशोत्तरशतं पर्व ॥१२१॥
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अनुभव किया और मनुष्य जन्मको सफल माना ||२७|| इधर श्री रामने भी आगममें कहे अनुसार प्रवृत्ति कर, एकान्त स्थान में शयनासन किया तथा तपसे अत्यन्त देदीप्यमान हो पृथिवीपर उस तरह योग्य विहार किया कि जिस तरह मानो दूसरा सूर्य ही पृथिवीपर आ पहुँचा हो ||२८||
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराणमें श्रीरामके आहार दानका वर्णन करने वाला एकसौ इक्कीसवाँ पर्व समाप्त हुआ || १२१ ॥
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