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एकविंशोत्तरशतं पर्व
अथ द्वादशमादाय द्वितीयं मुनिपुङ्गवः। सहिष्णुरितरागम्यं चकार समवग्रहम् ॥ १ ॥ अस्मिन् मृगकुलाकीर्णे वने या मम जायते । भिक्षा तामेव गृह्णामि सनिवेशं विशामि न ॥ २ ॥ इति तत्र समारूढे मुनौ घोरमुपग्रहम्' । दुष्टाश्वेन हृतो राजा प्रतिनन्दी प्रसूतिना ॥ ३ ॥ अन्विष्यन्ती जनौघेभ्यो हृत्तिमार्ग समाकुला । स्थूरीपृष्टसमारूढा महिषी प्रभवाह्वया ||४|| किं भवेदिति भूयिष्ठं चिन्तयन्ती स्वरावती । प्रातिष्ठतानुमार्गेण भटचक्रसमन्विता ॥ ५ ॥ ह्रियमाणस्य भूपस्य सरः संवृत्तमन्तरे । तत्र पङ्के ययुर्मग्नः कलन इव गेहिक: ॥ ६ ॥ ततः प्राप्ता वरारोहा वीषय पद्मादिमत्सरः । किञ्चित्स्मिताननाऽवोचत्साध्वेवाश्वो नृपान्यधात् । अपाहरिष्यथ नो चेदच्यत ततः कुतः । सरो नन्दनपुष्याढ्यमभिकाङ्क्षितदर्शनम् ||८|| सफलोद्यानयात्राऽथो याता यत्सुमनोहरम् । वनान्तरमिदं दृष्टमासेचनकदर्शनम् ॥ ॥
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इति नर्मपरं कृत्वा जल्पितं प्रियसङ्गता । सखीजनावृता तस्थौ सरसस्तस्य रोधसि ॥ १० ॥ प्रक्रीड्य विमले तोये विधाय कुसुमोच्चयम् । परस्परमलंकृत्य दम्पती भोजने स्थितौ ॥११॥ एतस्मिन्नन्तरे साधुरूपवासविधिं गतः । तयोः सन्निधिमासीदत् क्रियामार्गविशारदः ||१२| तं समीय समुद्भूतप्रमदः पुलकान्वितः । अभ्युत्तस्थौ सपत्नोको राजा परमसम्भ्रमः ॥१३॥
अथानन्तर कष्ट सहन करने वाले, मुनिश्रेष्ठ श्री रामने पाँच दिनका दूसरा उपवास लेकर यह अवग्रह किया कि मृग समूहसे भरे हुए इस वनमें मुझे जो भिक्षा प्राप्त होगी उसे ही मैं ग्रहण करूँगा - भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश नहीं करूँगा ॥१-२|| इस प्रकार कठिन अवग्रह लेकर जब मुनिराज वनमें विराजमान थे तब एक प्रतिनन्दी नामका राजा दुष्ट घोड़ेके द्वारा हरा गया ||३|| तदनन्तर उसकी प्रभवा नामकी रानी शोकातुर हो मनुष्यों के समूहसे हरणका मार्ग खोजती हुई घोड़े पर चढ़कर निकली | अनेक योधाओंका समूह उसके साथ था । 'क्या होगा ? कैसे राजाका पता चलेगा ? इस प्रकार अत्यधिक चिन्ता करती हुई वह बड़े वेग से उसी मार्ग से निकली ॥४-५॥ हरे जानेवाले राजाके बीच में एक तालाब पड़ा सो वह दुष्ट अश्व उस तालाब की कीचड़ में उस तरह फँस गया जिस तरह कि गृहस्थ स्त्री में फँस रहता है ॥ ६ ॥ तदनन्तर सुन्दरी रानी, वहाँ पहुँचकर और कमल आदिसे युक्त सरोवरको देखकर कुछ मुसकराती हुई बोली कि राजन् ! घोड़ाने अच्छा ही किया ॥७॥ यदि आप इस घोड़ेके द्वारा नहीं हरे जाते तो नन्दन वन जैसे पुष्पोंसे सहित यह सुन्दर सरोवर कहाँ पाते ? इसके उत्तर में राजाने कहा कि हाँ यह उद्यान-यात्रा आज सफल हुई जब कि जिसके देखनेसे तृप्ति नहीं होती ऐसे इस अत्यन्त सुन्दर वनके मध्य तुम आ पहुँची ॥८६॥ इस प्रकार हास्यपूर्ण वार्ताकर पति के साथ मिली रानी, सखियोंसे आवृत हो उसी सरोवर के किनारे ठहर गई || १० ||
तदनन्तर निर्मल जल में क्रीडा कर, फूल तोड़कर तथा परस्पर एक दूसरेको अलंकृत कर जब दोनों दम्पति भोजन करनेके लिए बैठे तब इसी बीच में उपवासकी समाप्तिको प्राप्त एवं साधुको क्रियामें निपुण मुनिराज राम, उनके समीप आये ॥। ११-१२ ॥ हर्ष उत्पन्न हुआ था, तथा रोमाश्च उठ आये थे ऐसा राजा रानीके साथ १. मुपग्रहे म० ज० । २. साध्वेवाश्वो नृपाविधत् म० । साध्विवाश्वो
उन्हें देख जिसे घबड़ा कर उठकर
नृपाविधत् ज० ।
३. रोधिता म० ।
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