Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ विंशोत्तरशतं पर्व ३६० तेषां कपोलपालीषु पालिता विपुलाश्चिरम् । प्लावयन्तः पयःपूरा गण्डश्रोत्रविनिर्गताः ॥३०॥ उत्कर्णनेत्रमध्यस्थतारकाः कवलत्यजः । उग्रीवा वाजिनस्तस्थुः कृतगम्भीरहेषिताः ॥३॥ भाकुलाध्यक्षलोकेन कृतानुगमनाः परे । चक्ररत्याकुलं लोकं त्रस्तास्त्रटितबन्धनाः ॥३२॥ एवंविधो जनो यावदभवदानतत्परः । परस्परमहाक्षोभपरिपूरणचञ्चलः ॥३३॥ तावच्छ वा घनं घोरं क्षुब्धसागरसम्मितम् । प्रासादान्तर्गतो राजा प्रतिनन्दात्यनन्दितः ॥३१॥ सहसा क्षोभमापनः किमेतदिति सस्वरम् । हयमूर्धानमारुतत् परिच्छदसमन्वितः ॥३५॥ ततः प्रधानसाधुं तं वीचय लोकविशेषकम् । कलङ्कपकनिर्मुक्तशशाधवलच्छविम् ॥३६॥ आज्ञापयद बहुन् वीरान् यथैन मुनिसत्तमम् । व्यतिपत्य दूतं प्रीत्या परिप्रापयतात्र मे ॥३७॥ यदाज्ञापयति स्वामीत्युक्त्वा प्रवजितास्ततः। राजमानवसिंहास्ते समुत्सारितजन्तवः ॥३८॥ गत्वा व्यज्ञापयन्नेवं मस्तकन्यस्तपाणयः । मुनिं मधुरवाणीकास्तकान्तिहृतचेतसः ॥३६॥ भगवनीप्सितं वस्तु गृहाणेत्यस्मदीश्वरः । विज्ञापयति भक्त्या त्वां सदनं तस्य गम्यताम् ॥४०॥ अपथ्येन विवर्णेन विरसेन रसेन च । पृथग्जनप्रणीतेन किमनेन तवान्धसा ॥४१॥ एह्यागच्छ महासाधो प्रसादं कुरु याचितः । अन्नं यथेप्सितं स्वरमुपभुचव निराकुलम् ॥४२॥ इस्युक्त्वा दातुमुधुक्ता भितां प्रवरयोषितः । विषण्णचेतसो राजपुरुषैरपसारिताः ॥४३॥ उपचारप्रकारेण जातं ज्ञावान्तरायकम् । राजपौरामतः साधुः सर्वतोऽभूत्पराङ्मुखः ॥४४॥ कोलाहल और तेजके कारण हाथियों ने भी बाँधनेके खम्भे तोड़ डाले ॥२६॥ उनकी कपोलपालियों में जो मदजल अधिक मात्रामें चिरकालसे सुरक्षित था वह गण्डस्थल तथा कानोंके विवरोंसे निकल-निकलकर पृथिवीको तर करने लगा ॥३०॥ जिनके कान खड़े थे, जिनके नेत्रोंकी पुलियाँ नेत्रोंके मध्यमें स्थित थीं, जिन्होंने घास खाना छोड़ दिया था, और जिनकी गरदन ऊपरकी ओर उठ रही थी ऐसे घोड़े गम्भीर हिनहिनाहट करते हुए भयभीत दशामें खड़े थे ॥३१॥ जिन्होंने भयभीत होकर बन्धन तोड़ दिये थे तथा जिनके पीछे पीछे घबमये हुए सईस दौड़ रहे थे ऐसे कितने ही घोड़ोंने मनुष्योंको व्याकुल कर दिया ॥३२॥ इस प्रकार जब तक दान देने में तत्पर मनुष्य पारस्परिक महाक्षोभसे चश्चल हो रहे थे तब तक तुभित सागरके समान उनका घोर शब्द सुनकर महलके भीतर स्थित प्रतिनन्दी नामका राजा कुछ रुष्ट हो सहसा क्षोभको प्राप्त हुआ और 'यह क्या है' इस प्रकार शब्द करता हुआ परिकरके साथ शीघ्र ही महलकी छतपर चढ़ गया ॥३३-३५॥ तदनन्तर महलकी छतसे लोगोंके तिलक और कलंक रूपी पङ्कसे रहित चन्द्रमाके समान धवल कान्तिके धारक उन प्रधान साधुको देखकर राजाने बहुतसे वीरोंको आज्ञा दी कि शीघ्र ही जाकर तथा प्रीतिपूर्वक नमस्कार कर इन उत्तम मुनिराजको यहाँ मेरे पास लेआओ ।।३६-३७॥ 'स्वामी जो आज्ञा करें' इस प्रकार कह कर राजाके प्रधान पुरुष, लोगोंकी भीड़को चीरते हुए उनके पास गये ॥३८॥ और वहाँ जाकर हाथ जोड़ मस्तकसे लगा मधुर वाणीसे युक्त और उनकी कान्तिसे हृत चित्त होते हुए इस प्रकार निवेदन करने लगे कि ॥३६॥ हे भगवन् ! इच्छित वस्तु ग्रहण कीजिए' इस प्रकार हमारे स्वामी भक्तिपूर्वक प्रार्थना करते हैं सो उनके घर पधारिए ॥४०॥ अन्य साधारण मनुष्योंके द्वारा निर्मित अपथ्य, विवर्ण और विरस भोजनसे आपको क्या प्रयोजन है ॥४१॥ हे महासाधो ! आओ प्रसन्नता करो, और इच्छानुसार निराकुलता पूर्वक अभिलषित आहार ग्रहण करो ॥४२॥ ऐसा कहकर भिक्षा देनेके लिए उद्यत उत्तम स्त्रियों को राजाके सिपाहियोंने दूर हटा दिया जिससे उनके चित्त विषाद यक्त हो गये ॥४३॥ इस तरह उपचारकी विधिसे उत्पन्न हुआ अन्तराय जानकर मुनिराज, राजा १. कृतातुग गताः परे म । २. -मीक्षितं म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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