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पमपुराणे नगर्यास्तत्र निर्याति यतावसियतात्मनि । पूर्वस्मादपि सजातः सशोभः परमो बने ॥४५॥
उत्कण्ठाकुलहृदयं कृत्वा लोकं समस्तमस्तसुखः। गत्वा श्रमणोऽरण्यं गहनं न समाचचार प्रतिमाम् ॥४६॥ रष्टा तथाविधं तं पुरुषरविं चारुचेष्टितं नयनहरम् ।
जाते पुनर्वियोगे तिर्यञ्चोऽप्युत्तमामतिमाजग्मुः ॥४०॥ इत्याचे पद्मपुराणे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते पुरसंक्षोभाभिधानं नाम विंशोचरशतं पर्व ॥१२०॥
तथा नगरवासी दोनोंके अन्नसे विमुख होगये ॥४४॥ तदनन्तर अत्यन्त यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले मुनिराज जब नगरीसे वापिस लौट गये तब लोगोंमें पहलेको अपेक्षा अत्यधिक क्षोभ होगया ॥४५॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! जिन्होंने इन्द्रिय सम्बन्धी सुखका त्याग कर दिया था ऐसे मुनिराजने समस्त मनुष्योंको उत्कण्ठासे व्याकुलहृदय कर सघन वनमें चले गये और वहाँ उन्होंने रात्रि भरके लिए प्रतिमा योग धारण कर लिया अर्थात् सारी रात कायोत्सर्गसे खड़े रहे ॥४६॥ सुन्दर चेष्टाओंके धारक नेत्रोंको हरण करने वाले तथा पुरुषोंमें सूर्य समान उन वैसे मुनिराजको देखनेके बाद जब पुनः वियोग होता था तब तियश्च भी अत्यधिक अधीरताको प्राप्त हो जाते थे ॥४७॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध श्री रविषेणाचार्य द्वारा प्रणीत पद्मपुराणमें नगरके क्षोभका
वर्णन करने वाला एकसौ बीसवां पर्व समाप्त हुआ ॥१२०॥
१. समस्तसुखसङ्गःब०।
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