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पन्नपुराणे प्रसीदैष'तवावृत्तपूर्व पादौ नमाम्यहम् । ननु ख्यातोऽखिले लोके मम स्वमनुकूलने ॥२६॥ असमानप्रकाशस्त्वं जगद्दीपः समुन्नतः । वलिनाऽकालवातेन प्रायो निर्वापितोऽभवत् ॥३०॥ राजराजत्वमासाथ नीत्वा लोकं महोत्सवम् । अनाथीकृत्य तं कस्माद् भवितागमनं तव ॥३१॥ चक्रेण द्विषतां चक्रं जित्वा सकलमार्जितम् । कथं नु सहसेऽद्य त्वं कालचक्रपराभवम् ॥३२॥ राजश्रिया तवाराजगदिदं सुन्दरं वपुः । तदद्यापि तथैवेदं शोभते जीवितोज्झितम् ॥३३॥ निद्रा राजेन्द्र मुन्चस्व समतीता विभावरी । निवेदयति सन्ध्येयं परिप्राप्त दिवाकरम् ॥३४॥ सुप्रभातं जिनेन्द्राणां लोकालोकावलोकिनाम् । अन्येषां भउपपद्यानां शरणं मुनिसुव्रतः ॥३५॥ प्रभातमपि जानामि ध्वान्तमेतदहं परम् । वदनं यनरेन्द्रस्य पश्यामि गतविभ्रमम् ॥३६॥ उत्तिष्ठ मा चिरं स्वाप्सीमुंश्च निद्रा विचक्षण । आश्रयायः सभास्थानं तिष्ठ सामन्तदर्शने ॥३७॥ प्राप्तो विनिद्रतामेष सशोकः कमलाकरः । कस्मादभ्युस्थितस्त्वं नु निद्रितं सेवते भवान् ॥३८॥ विपरीतमिदं जातु त्वया नैवमनुष्ठितम् । उत्तिष्ठ राजकृत्येषु भवावहितमानसः ॥३६॥ भ्रातस्त्वयि चिरं सुप्ते जिनवेश्मसु नोचिताः। क्रियन्ते चारुसङ्गीता भेरीमङ्गलनिःस्वनाः ॥४०॥ श्लथप्रभातकर्तव्याः करुणासक्तचेतसः । उद्वेगं परमं प्राप्ता यतयोऽपि स्वयीशे ॥४१॥ वीणावेणुमृदङ्गादिनिस्वानपरिवर्जिता । स्ववियोगाकुलीभूता नगरीयं न राजते ॥४२॥
प्रसन्न होओ, देखो मैंने कभी तुझे नमस्कार नहीं किया किन्तु आज तेरे चरणों में नमस्कार करता हूँ । अरे ! तू तो मुझे अनुकूल रखनेके लिए समस्त लोकमें प्रसिद्ध है ॥२६।। तू अनुपम प्रकाशका धारी बहुत बड़ा लोकप्रदीप है सो इस असमयमें चलनेवाली प्रचण्ड वायुके द्वारा प्रायः बुझ गया है ॥३०।। तुमने राजाधिराज पद पाकर लोकको बहुत भारी उत्सव प्राप्त कराया था अब उसे अनाथकर तुम्हारा जाना किस प्रकार होगा ? ॥३१॥ अपने चक्ररत्नके द्वारा शत्रुओंके समस्त सबल दलको जीतकर अब तुम कालचक्रका पराभव क्यों सहन करते हो ॥३२॥ तुम्हारा जो सुन्दर शरीर पहले राजलक्ष्मीसे जैसा सुशोभित था वैसा ही अब निर्जीव होनेपर भी सुशोभित है ॥३३।। हे राजेन्द्र ! उठो, निद्रा छोड़ो, रात्रि व्यतीत हो गई, यह सन्ध्या सूचित कर रही है कि अब सूर्यका उदय होनेवाला है ॥३४||
लेकालोकको देखनेवाले जिनेन्द्र भगवानका सदा सुप्रभात है तथा भगवान् मुनिसुव्रतदेव अन्य भव्य जीवरूपी कमलोंके लिए शरणस्वरूप हैं ॥३५॥ इस प्रभातको भी मैं परम अन्धकार स्वरूप ही जानता हूँ क्योंकि मैं तुम्हारे मुखको चेष्टारहित देख रहा हूँ॥३६॥ हे चतुर! उठ, देर तक मत सो, निद्रा छोड़, चल सभास्थलमें चलें, सामन्तोंको दर्शन देनेके लिए सभास्थलमें बैठ ॥३७॥ देख, यह शोकसे भरा कमलाकर विनिद्र अवस्थाको प्राप्त हो गया हैविकसित हो गया है पर तू विद्वान होकर भी निद्राका सेवन क्यों कर रहा है ? ॥३८।। तूने कभी ऐसी विपरीत चेष्टा नहीं की अतः उठ और राजकार्यों में सावधानचित्त हो ॥३६।। हे भाई ! तेरे बहुत समय तक सोते रहनेसे जिन-मन्दिरोंमें सुन्दर सङ्गीत तथा भेरियोंके माङ्गलिक शब्द आदि उचित क्रियाएँ नहीं हो रही हैं ॥४०॥ तेरे ऐसे होनेपर जिनके प्रातःकालोन कार्य शिथिल हो गये ऐसे दयालु मुनिराज भी परम उद्वेगको प्राप्त हो रहे हैं ॥४१।। तुम्हारे वियोगसे दुःखी हुई यह नगरी वीणा बाँसुरी तथा मृदङ्ग आदिके शब्दसे रहित होनेके कारण सुशोभित नहीं
१. तवानृत्तपर्व म० । २. चलिताकाल म । ३. कस्मादभ्युदितत्वं तु निन्दितं म० ।
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