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पद्मपुराणे
जेने शक्त्या च भक्त्या च शासने सङ्गतत्पराः । जना बिभ्रति लभ्यार्थ जन्म भुक्तिपदान्तिकम् ॥५६॥ जिनाचरमहारतनिधानं प्राप्य भो जनाः। कुलिङ्गसमयं सर्व परित्यजत दुःखदम् ॥५७॥ कुप्रन्थैर्मोहितात्मानः सदम्भकलुषक्रियाः । जात्यन्धा इव गच्छन्ति त्यक्त्वा कल्याणमन्यतः ॥५८।। 'नानोपकरणं दृष्ट्रा साधनं शक्तिवर्जिताः । निर्दोषमिति भाषित्वा गृह्णते मुखराः परे ॥५६॥ व्यर्थमेव कुलिङ्गास्ते मूढेरन्यैः पुरस्कृताः । प्रखिन्नतनवो भारं वहन्ति भृतका इव ।।६०॥
आर्यागीतिः ऋषयस्ते खलु येषां परिग्रहे नास्ति याचने वा बुद्धिः। तस्मात्ते निर्ग्रन्थाः साधुगुणेरन्विता बुधैः संसेव्याः ॥६१।। श्रुत्वा बलदेवस्य त्यक्त्वा भोगं परं विमुक्तिग्रहणम् ।
भवत भवभावशिथिला व्यसनरवेस्तापमाप्नुत न पुगर्यस्नात् ॥६२।। इत्यार्षे श्रीपद्मपुराणे श्रीरविषेणाऽऽचार्यप्रणीते बलदेवनिष्कमणाभिधानं नाम
एकोनविंशोत्तरशतं पर्व ॥१४॥
उसी मार्गमें रमण करो जिसमें कि रघूत्तम-राममुनि रमण करते थे ॥५५॥ जिन-शासनमें शक्ति और भक्तिपूर्वक प्रवृत्त रहनेवाले मनुष्य, जिस समस्त प्रयोजनकी प्राप्ति होती है ऐसे मुक्तिपदके निकटवर्ती जन्मको प्राप्त होते हैं ॥५६।। हे भव्य जनो! तुम सब जिनवाणी रूपी महारत्नोंके खजानेको पाकर कुलिङ्गियोंके दुःखदायी समस्त शास्त्रोंका परित्याग करो ॥५॥ जिनकी आत्मा खोटे शास्त्रोंसे मोहित हो रही है तथा जो कपट सहित कलुषित क्रिया करते हैं ऐसे मनुष्य जन्मान्धोंकी तरह कल्याण मार्गको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं ॥५८॥ कितने ही . शक्तिहीन बकवादी मनुष्य नाना उपकरणोंको साधन समझ 'इनके ग्रहणमें दोष नहीं है। ऐसा कहकर उन्हें ग्रहण करते हैं सो वे कुलिङ्गी हैं । मूर्ख मनुष्य उन्हें व्यर्थ ही आगे करते हैं वे खिन्न
तेि हए बोझा ढोनेवालोंके समान भारको धारण करते हैं ॥५६-६०॥ वास्तवमें ऋषि वे ही हैं जिनकी परिग्रहमें और उसको याचनामें बुद्धि नहीं है। इसलिए उत्तम गुणोंके धारक निर्मल निम्रन्थ साधुओंकी ही विद्वज्जनोंकी सेवा करनी चाहिए। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे भव्यजनो ! इस तरह बलदेवका चरित सुनकर तथा संसारके कारणभूत समस्त उत्तम भोगोंका त्यागकर यत्नपूर्वक संसारवर्धक भावोंसे शिथिल होओ जिससे फिर कष्टरूपी सूर्यके संतापको प्राप्त न हो सको ॥६१-६२॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध तथा रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराणमें बलदेवकी
दीक्षाका वर्णन करनेवाला एकसौ उन्नीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥११॥
शरी
१. नानोपकरणा म०, ज०। Jain Education International
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