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पद्मपुराणे
आहारं कुण्डलं मौलिमपनीयाम्बरं तथा । परमार्थापितस्वान्तस्तनुलग्नमलावलिः ॥२६॥ श्वेताब्जसुकुमाराभिरङ्गुलीभिः शिरोरुहान् । निराचकार काकुत्स्थः पर्यकासनमास्थितः ॥२७॥ रराज सुतरां रामस्त्यक्ताशेषपरिग्रहः । सैं हिकेयविनिर्मुक्तो हंसमण्डलविभ्रमः ॥२८॥ शीलतानिलयीभूतो गुप्तो गुप्त्याऽभिरूपया । पञ्चकं समितेः प्राप्तः पञ्चसर्वव्रतं श्रितः ॥२६।। षट्जीवकायरक्षस्थो दण्डत्रितयसूदनः । सप्तभीतिविनिर्मुक्तः षोडशार्द्धमदार्दनः ॥३०॥ श्रीवत्सभूषितोरस्को गुणभूषणमानसः । जातः सुश्रमणः पद्मो मुक्तितत्त्वविधौ रढः ॥३१॥ अदृष्टविग्रहैर्देवैराजघ्ने सुरदुन्दुभिः । दिव्यप्रसूनवृष्टिश्च विविक्तभक्तितत्परः ॥३२॥ निष्क्रामति तदा रामे गृहिभावोरुकल्मषात् । चक्रे कल्याणमित्राभ्यां देवाभ्यां परमोत्सवः ॥३३॥ भूदेवे तत्र निष्क्रान्ते सनृपा भूवियश्चराः । चिन्तान्तरमिदं जग्मुर्विस्मयव्याप्तमानसाः ॥३४॥ विभूतिरस्नमोरक्ष यत्र त्यक्त्वाऽतिदुस्त्यजम् । देवैरपि कृतस्वार्थी रामदेवोऽभवन्मुनिः ॥३५॥ तत्रास्माकं परित्याज्यं किमिवास्ति प्रलोभकम् । तिष्ठामः केवलं येन व्रतेच्छाविकलात्मकाः ॥३६॥ एवमादि परिध्याय कृत्वान्तःपरिदेवनम् । संवेगिनो निराकान्ता बहवो गृहबन्धनात् ॥३७॥ छित्वा रागमयं पाशं निहत्य द्वेषवेरिणम् । सर्वसङ्गविनिमुक्तः शत्रुघ्नः श्रमणोऽभवत् ॥३८॥ विभीषणोऽथ सुग्रीवो नोलश्चन्द्रनखो नलः । क्रव्यो विराधिताद्याश्च निरीयुः खेचरेश्वराः ॥३६॥
विद्याभृतां परित्यज्य विद्यां प्राव्राज्यमीयुषाम् । केषाञ्चिच्चारणी लब्धि योजन्माऽभवत्पुनः ॥४०॥ छोड़कर पर्यङ्कासनसे विराजमान होगये । उनका हृदय परमार्थके चिन्तनमें लग रहा था, उनके शरीरपर मलका पुञ्ज लग रहा था, और उन्होंने श्वेत कमलके समान सुकुमार अंगुलियोंके द्वारा शिरके बाल उखाड़ कर फेंक दिये थे ॥२४-२७।। जिनका सब परिग्रह छूट गया था ऐसे राम उस समय राहुके चङ्गुलसे छूटे हुए सूर्यके समान सुशोभित हो रहे थे ॥२८॥ जो शीलवतके घर थे, उत्तम गुप्तियोंसे सुरक्षित थे , पश्च समितियोंको प्राप्त थे और पाँच महाव्रतोंकी सेवा करते थे ॥२६।। छह कामके जीवोंकी रक्षा करनेमें तत्पर थे, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति रूप तीन प्रकारके दण्डको नष्ट करने वाले थे, सप्त भयसे रहित थे, आठ प्रकारके मदको नष्ट करने वाले थे ॥३०।। जिनका वक्षस्थल श्रीवत्सके चिह्नसे अलंकृत था, गुणरूपी आभूषणोंके धारण करनेमें जिनका मन लगा था और जो मुक्तिरूपी तत्त्वके प्राप्त करने में सुदृढ़ थे ऐसे राम उत्तम श्रमण होगये ॥३१।। जिनका शरीर दिख नहीं रहा था ऐसे देवोंने देवदुन्दुभि बजाई, तथा भक्ति प्रकट करनेमें तत्पर पवित्र भावनाके धारक देवोंने दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की ॥३२॥ उस समय श्री रामके गृहस्थावस्था रूपी महापापसे निष्क्रान्त होनेपर कल्याणकारी मित्रकृतान्तवक्त्र और जटायुके जीवरूप देवोंने महान् उत्सव किया ॥३३॥ वहाँ श्री रामके दीक्षित होनेपर राजाओं सहित समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर आश्चर्यसे चकितचित्त हो इस प्रकार विचार करने लगे कि देवोंने भी जिनका कल्याण किया ऐसे राम देव जहाँ इस प्रकारकी दुस्त्यज विभूतिको छोड़कर मुनि हो गये वहाँ हम लोगोंके पास छोड़नेके योग्य प्रलोभन है ही क्या ? जिसके कारण हम व्रतकी इच्छासे रहित हैं ॥३४-३६॥ इस प्रकार विचारकर तथा हृदयमें अपनी आसक्तिपर दुःख प्रकटकर संवेगसे भरे अनेकों लोग घरके बन्धनसे निकल भागे ॥३७॥
शत्रुघ्न भी रागरूपी पाशको छेदकर, द्वेषरूपी वैरीको नष्टकर तथा समस्त परिग्रहसे निर्मुक्त हो श्रमण हो गया ।।३८॥ तदनन्तर विभीषण, सुग्रीव, नील, चन्द्रनख, नल, क्रव्य तथा विराधित आदि अनेक विद्याधर राजा भी बाहर निकले ॥३६॥ जिन विद्याधरोंने विद्याका परि
१. राहुविनिर्मुक्तः । २. सूर्यमण्डलविभ्रमः। ३. स्वार्थैः म०। ४. निर्गताः ।
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