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सप्तदशोत्तरशतं पर्व
यदा निधनमस्यैव केवलस्य तदा सति । उच्चैराक्रन्दितुं युक्तं न सामान्ये पराभवे ||१५|| दैव हि जनो जातो मृत्युनाधिष्ठितस्तदा । तत्र साधारणे धर्मे ध्रुवे किमिति शोच्यते ॥ १६ ॥ अभीष्टसङ्गमाकाङ्क्षो मुधा शुष्यति शोकवान् । शबरार्त्त इवारण्ये चमरः केशलोभतः ॥१७॥ सर्वैरेभिर्यदास्माभिरितो गम्यं वियोगतः । तदा किं क्रियते शोकः प्रथमं तत्र निर्गते ॥ १८ ॥ लोकस्य साहसं पश्य निर्भीस्तिष्ठति यत्पुरः । मृत्योर्वज्राग्रदण्डस्य सिंहस्येव कुरङ्गकः ॥ १६॥ लोकनाथं विमुच्येकं कश्चिदन्यः श्रुतस्त्वया । पाताले भूतले वा यो न जातो मृत्युनाऽर्दितः ॥२०॥ संसारमण्डलापन्नं दह्यमानं सुगन्धिना । सदा च विन्ध्यदावाभं भुवनं किं न वीक्षसे ॥२१॥ पर्यट्य भवकान्तारं प्राप्य 'कामभुजिष्यताम् । मत्तद्विपा इवाऽऽयान्ति कालपाशस्य वश्यताम् ॥२२॥ धर्ममार्ग समासाद्य गतोऽपि त्रिदशालयम् । अशाश्वततया नद्या पात्यते तटवृक्षवत् ॥ २३॥ सुरमानवनाथानां चयाः शतसहस्रशः । निधनं समुपानीताः कालमेघेन वह्नयः ॥ २४ ॥ दूरमम्बर मुल्लङ्घ्य समापत्य रसातलम् । स्थानं तन्न प्रपश्यामि यन्न मृत्योरगोचरः ॥२५॥ षष्टकालक्षये सर्व क्षीयते भारतं जगत् । धराधरा विशीर्यन्ते मर्त्यकाये तु का कथा ॥ २६ ॥ वज्रभवपुर्बद्धा "अध्यबध्याः सुरासुरैः । नन्वनित्यतया लब्धा रम्भागर्भोपमैस्तु किम् ॥२७॥
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व्यक्ति के प्रति क्यों शोक करता है ? वह मृत्युको डाँढ़ों के बीच क्लेश उठानेवाले अपने आपके प्रति शोक क्यों नहीं करता ? ॥ १४ ॥ यदि इन्हीं एकका मरण होता तब तो जोरसे रोना उचित था परन्तु जब यह मरण सम्बन्धी पराभव सबके लिए समानरूपसे प्राप्त होता है तब रोना नहीं है ||१५|| जिस समय यह प्राणी उत्पन्न होता है उसी समय मृत्यु इसे आ घेरती है । इस तरह जब मृत्यु सबके लिए साधारण धर्म है तब शोक क्यों किया जाता है ? ॥ १६॥ जिस प्रकार जङ्गल में भीलके द्वारा पीड़ित चमरी मृग - बालोंके लोभसे दुःख उठाता है उसी प्रकार इष्ट पदार्थों के समागमकी आकांक्षा रखनेवाला यह प्राणी शोक करता हुआ व्यर्थ ही दुःख उठाता है ||१७|| जब हम सभी लोगोंको वियुक्त होकर यहाँ से जाना है तब सर्वप्रथम उनके चले जानेपर शोक क्यों किया जा रहा है ? ॥ १८ ॥ अरे, इस प्राणीका साहस तो देखो जो यह सिंहके सामने मृगके समान वज्रदण्डके धारक यमके आगे निर्भय होकर बैठा है ||१६|| एक लक्ष्मीधरको छोड़कर समस्त पाताल अथवा पृथिवीतलपर किसी ऐसे दूसरेका नाम आपने सुना कि जो मृत्युसे पीड़ित नहीं हुआ हो ॥२०॥ जिस प्रकार सुगन्धिसे उपलक्षित विन्ध्याचलका वन, दावानलसे जलता है उसी प्रकार संसारके चक्रको प्राप्त हुआ यह जगत् कालानलसे जल रहा है, यह क्या आप नहीं देख रहे हैं ? ॥२१॥ संसाररूपी अटवी में घूमकर तथा कामकी भाधीनता प्राप्तकर ये प्राणी मदोन्मत्त हाथियोंके समान कालपाशकी आधीनताको प्राप्त करते हैं ||२२|| यह प्राणी धर्मका मार्ग प्राप्तकर यद्यपि स्वर्ग पहुँच जाता है तथापि नश्वरता के द्वारा उस तरह नीचे गिरा दिया जाता है जिस प्रकार कि नदीके द्वारा तटका वृक्ष ||२३|| जिस प्रकार प्रलयकालीन मेघके द्वारा अग्नियाँ नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार नरेन्द्र और देवेन्द्रोंके लाखों समूह कालरूपी मेघके द्वारा नाशको प्राप्त हो चुके हैं ||२४|| आकाशमें बहुत दूर तक उड़कर और
रसातलमें बहुत दूर तक जाकर भी मैं उस स्थानको नहीं देख सका हूँ जो मृत्युका अगोचर न हो ||२५|| छठवें कालकी समाप्ति होनेपर यह समस्त भारतवर्ष नष्ट हो जाता है और बड़े-बड़े पर्वत भी विशीर्ण हो जाते हैं तब फिर मनुष्यके शरीरकी तो कथा ही क्या है ? ||२६|| जो वज्रमय शरीर से युक्त थे तथा सुर और असुर भी जिन्हें मार नहीं सकते थे ऐसे लोगोंको भी नित्यता प्राप्त कर लिया है फिर केलेके भीतरी भाग के समान निःसार मनुष्योंकी तो बात ही
१. मदनपारवश्यम् । २. तत्र म० । ३. यत्र म० । ४. 'यत्र मृत्युरगोचरः' इति शुद्धं प्रतिभाति ।
५. अप्यवन्ध्या०म० । Jain Education International
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