________________
अष्टादशोत्तरशतं पर्व
विमाने यत्र सम्भूतो जटायुस्त्रिदशोत्तमः । तस्मिन्नेव कृतान्तोऽपि तस्यैव विभुतां गतः ॥४१॥ कृतान्त त्रिदशोऽवोचद् भो गीर्वाणयते कुतः । इमं यातोऽसि संरम्भं सोऽगदद्यो जितावधिः ॥ ४२ ॥ यदाऽहमभवं गृधस्तदा येनेष्टपुत्रवत् । लालितः शोकतप्तं तमेति शत्रुबलं महत् ॥ ४३ ॥ ततः कृतान्तदेवोऽपि प्रयुज्यावधिलोचनम् । अधोभूयिष्ठदुःखार्त्तो बभाषे चातिभासुरः ॥ ४४ ॥ सखे सत्यं ममाप्येष प्रभुरासीत् सुवत्सलः । प्रसादादस्य भूपृष्ठे कृतं दुर्लंडितं मया ||४५ || भाषितश्चाहमेतेन गहनात्परमोचनम् । तदिदं जातमेतस्य तदेह्येनमिमो लघु ॥४६॥ इत्युक्त्वा प्रचलनीलकेशकुन्तलसंहती' । स्फुरत्किरीटभाचक्रौ विलसन्मणिकुण्डली ॥४७॥ महेन्द्रकपतो देवौ श्रीमन्तौ प्रति कोसलाम् । जग्मतुः परमोद्योगौ प्रतिपक्ष विचक्षणौ ॥४८॥ सामानिकं कृतान्तोऽगाद् वज स्वं द्विषतां बलम् । विमोहय रघुश्रेष्ठं रक्षितुं तु ब्रजाम्यहम् ॥४३॥ ततो जटायुर्गीर्वाणः कामरूपविवर्त्तकृत् । सुधीरुदारमत्यन्तं परसैन्यममोहयत् ||५०|| आगच्छतामरातीनामयोध्यामीचितां पुरः । पुनः प्रदर्शयामास पर्वतं पृष्ठतः पुनः ॥ ५१ ॥ निरस्याऽऽरादधीयांस्तां शत्रुखेचरवाहिनीम् । भारेभे रोदसी व्याप्तुमयोध्याभिरनन्तरम् ॥ ५२ ॥ अयोध्यैष विनीतेयमियं सा कोशला पुरी । अहो सर्वमिदं जातं नगरीगहनात्मकम् ॥ ५३ ॥ इति वीच्य महीपृष्ठं खं चायोध्यासमाकुलम् । मानोन्नत्या वियुक्तं तद्वीच्यापन्नमभूद्बलम् ॥ ५४ ॥
आसन कम्पायमान हुए ||४०|| जिस विमानमें जटायुका जीव उत्तम देव हुआ था उसी विमान में कृतान्तवक्त्र भी उसीके समान वैभवका धारी देव हुआ था || ४१ || कृतान्तवक्त्रके जीवने जटायुके जीवसे कहा कि हे देवराज ! आज इस क्रोधको क्यों प्राप्त हुए हो ? इसके उत्तर में अवधिज्ञानको जोड़नेवाले जटायुके जीवने कहा कि जब मैं गृध पर्याय में था तब जिसने प्रिय पुत्र समान मेरा लालन-पालन किया था आज उसके संमुख शत्रुकी बड़ी भारी सेना आ रही है और वह स्वयं भाईके मरणसे शोक संतप्त है ।।४२-४३ ।। तदनन्तर कृतान्तवक्त्रके जीवने भी अवधिज्ञान रूपी लोचनका प्रयोगकर नीचे होनेवाले अत्यधिक दुःखसे दुःखी तथा क्रोध से देदीप्यमान होते हुए कहा कि मित्र, सच है वह हमारा भी स्नेही स्वामी रहा है । इसके प्रसादसे मैंने पृथिवीतलपर अनेक दुर्दान्त चेष्टाएँ की थीं ||४४-४५ || इसने मुझसे कहा भी था कि संकट से मुझे छुड़ाना। आज वह संकट इसे प्राप्त हुआ है इसलिए आओ शीघ्र ही इसके पास चलें ॥४६॥
इतना कहकर जिनके काले-काले केश तथा कुन्तलोंका समूह हिल रहा था, जिनके मुकुटका कान्तिच देदीप्यमान हो रहा था, जिनके मणिमय कुण्डल सुशोभित थे, जो परम उद्योगी थे तथा शत्रुका पक्ष नष्ट करनेमें निपुण थे ऐसे वे दोनों श्रीमान् देव, माहेन्द्र स्वर्गसे अयोध्या की ओर चले ॥४७-४८ ॥ कृतान्तवक्त्रके जीवने जटायुके जीवसे कहा कि तुम तो जाकर शत्रु सेनाको मोहित करो - उसकी बुद्धि भ्रष्ट करो और मैं रामकी रक्षा करनेके लिए जाता हूँ ||४६|| तदनन्तर इच्छानुसार रूपपरिवर्तित करनेवाले बुद्धिमान जटायुके जीवने शत्रुको उस बड़ी भारी सेनाको मोहयुक्त कर दिया - भ्रममें डाल दिया || ५०॥ 'यह अयोध्या दिख रही है' ऐसा सोचकर जो शत्रु उसके समीप आ रहे थे उस देवने मायासे उनके आगे और पीछे बड़ेबड़े पर्वत दिखलाये । तदनन्तर अयोध्या के निकट खड़े होकर उसने शत्रु विद्याधरोंकी समस्त सेनाका निराकरण किया और पृथिवी तथा आकाश दोनोंको अयोध्या नगरियोंसे अविरल व्याप्त करना शुरू किया ।। ५१-५२ ॥ जिससे 'यह अयोध्या है, यह विनीता है, यह कोशलापुरी है, इस तरह वहाँकी समस्त भूमि और आकाश अयोध्या नगरियोंसे तन्मय हो गया || ५३ || इस
१. संहरी म० । २. रक्षैतं तु म० ज० ।
३८५
Jain Education Internatio४६-३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org