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अष्टादशोत्तरशतं पर्व
'प्रालेयवात सम्पर्क विमुक्ताम्भोजखण्डवत् । प्रजह्लादे विशुद्धात्मा विमुक्तकलुषाशयः ॥६६॥ महान्तध्वान्तसम्मूढो भानोः प्राप्त इवोदयम् । महाक्षुदर्दितो लेभे परमान्नमिवेप्सितम् ॥६७॥ तृषा परमया प्रस्तो महासर इवागमत् । महौषधमिव प्रापदस्यन्तव्याधिपीडितः ||१८|| यानपात्रमिवासादत्त कामो महार्णवम् । उत्पथप्रतिपन्नः सन्मार्ग प्राप्येव नागरः || ३६ || गन्तुमिच्छनिजं देशं महासार्थमिव श्रिताः । निर्गन्तुं चारकादिच्छोर्भग्नेव सुदृढाला ||१०० ॥ जिन मार्गस्मृतिं प्राप्य पद्मनाभः प्रमोदवान् । अधारयत् परां कान्ति प्रबुद्धकमलेक्षणः ॥ १०१ ॥ मन्यमानः स्वमुत्तीर्णमन्धकूपोदरादिव । भवान्तरमिव प्राप्तो मनसीदं समादधे ॥ १०२ ॥ भहो तृणाग्रसंसक्तजलबिन्दु चलाचलम् | मनुष्यजीवितं यद्वत्क्षणान्नाशमुपागतम् ॥ १०३ ॥ भ्रमताऽत्यन्तकृच्छ्रेण चतुर्गतिभवान्तरे । नृशरीरं मया प्राप्तं कथं मूढोऽस्म्यनर्थकः ॥१०४॥ कस्येष्टानि कलत्राणि कस्यार्थाः कस्य बान्धवाः । संसारे सुलभं ह्येतद् बोधिरेका सुदुर्लभा ॥ १०५ ॥ इति ज्ञाखा प्रबुद्ध तं मायां संहृत्य तौ सुरौ । चक्रतुस्त्रदशीमृद्धिं लोकविस्मयकारिणीम् ॥१०६ ॥ अपूर्वः प्रववौ वायुः सुखस्पर्शः सुसौरभः । नभो यानैर्विमानैश्च व्याप्तमत्यन्तसुन्दरैः ॥ १०७ ॥ गीयमाने सुरखीभिर्बीणानिःस्वनसङ्गतम् । आत्मीयं चरितं रामः शृणोति स्म क्रमस्थितम् ||१०८॥ एतस्मिन्नन्तरे देवः कृतान्तोऽमा जटायुषा । रामं पप्रच्छ किं नाथ प्रेरिताः दिवसाः सुखम् ॥१०६ ॥
ऐसे पुरुषोत्तम राम, जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक के जलसे मेवके समान कान्तिको प्राप्त हुए थे ||१५|| जिनकी आत्मा विशुद्ध थी तथा अभिप्राय कलुषता से रहित था ऐसे राम उस समय तुषारकी वायुसे रहित कमल वनके समान आह्लादसे युक्त थे ||१६|| उस समय उन्हें ऐसा हर्ष हो रहा था मानो महान् गाढ़ अन्धकार में भूला व्यक्ति सूर्यके उदयको प्राप्त होगया हो, अथवा तीव्र क्षुधासे पीड़ित व्यक्ति इच्छानुकूल उत्तम भोजनको प्राप्त हुआ हो ॥ ६७ ॥ अथवा तीव्र प्यास से ग्रस्त मनुष्य किसी महासरोवरको प्राप्त हुआ हो अथवा अत्यधिक रोगसे पीड़ित मनुष्य महौषधिको प्राप्त होगया हो ||६८ ॥ अथवा महासागरको पार करनेके लिए इच्छुक मनुष्यको जहाज मिल गई हो अथवा कुमार्गमें पड़ा नागरिक सुमार्गमें आ गया हो ॥६६॥ अथवा अपने देशको जानेके लिए इच्छुक मनुष्य व्यापारियोंके किसी महासंघ में आ मिला हो अथवा कारागृहसे निकलनेके लिए इच्छुक मनुष्यका मजबूत अर्गल टूट गया हो ॥ १०० ॥ | जिन मार्गका स्मरण पाकर राम हर्षसे खिल उठे और फूले हुए कमलके समान नेत्रोंको धारण करते हुए परम कान्तिको धारण करने लगे || १०१ ॥ उन्होंने मन में ऐसा विचार किया कि जैसे मैं अन्धकूपके मध्य से निकल कर बाहर आया हूँ अथवा दूसरे ही भवको प्राप्त हुआ हूँ || १०२ || वे विचार करने लगे कि अहो, तृणके अग्रभागपर स्थित जलकी बूदोंके समान चञ्चल यह मनुष्यका जीवन क्षणभर में नष्ट हो जाता है ||१०३ || चतुर्गति रूप संसारके बीच भ्रमण करते हुए मैंने बड़ी कठिनाई से मनुष्य शरीर पाया है फिर व्यर्थ ही क्यों मूर्ख बन रहा हूँ ? || १०४ || ये इष्ट स्त्रियाँ किसकी हैं ? ये धन, वैभव किसके हैं ? और ये भाई- बान्धव किसके हैं ? संसारमें ये सब सुलभ हैं परन्तु एक बोधि ही अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १०५ ॥
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इस प्रकार श्री रामको प्रबुद्ध जान कर उक्त दोनों देवोंने अपनी माया समेट ली तथा लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाली देवोंकी विभूति प्रकट की ॥ १०६ ॥ सुखकर स्पर्श से सहित तथा सुगन्धिसे भरी हुई अपूर्व वायु बहने लगी और आकाश अत्यन्त सुन्दर वाहनों और विमानोंसे व्याप्त हो गया || १०७ ॥ देवाङ्गनाओं द्वारा वीणाके मधुर शब्दके साथ गाया हुआ अपना क्रमपूर्ण चरित श्री रामने सुना || १०८ || इसी बीच में कृतान्तवक्त्र के जीवने जटायुके जीवके साथ
१. प्रालेयवास म० । २. तनुकामो म०
। ३. श्रिताः म० । ४ विधि-म० ।
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