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पनपुराणे
लषमणानं ततो दोामालिङ्गय वरलक्षणम् । इदं जगाद भूदेवः कलुषीभूतमानसः ॥२॥ भो भो कुत्सयते कस्मात् सौमित्रिं पुरुषोत्तमम् । अमङ्गलाभिधानस्य किं ते दोषो न विद्यते ॥३॥ कृतान्तेन समं यावद् विवादोऽस्येति वर्तते । जटायुस्तावदायातो वहमरकलेवरम् ॥४॥ तं दृष्ट्वाऽभिमुखं रामो बभाषे केन हेतुना । कलेवरमिदं स्कन्धे वहसे मोहसङ्गतः ।८५॥ तेनोक्तमनुयुधे मां कस्मान स्वं विचक्षणः । यतः प्राणनिमेषादिमुक्तं वहसि विग्रहम् ॥८६॥ बालाप्रमात्रकं दोषं परस्य चिप्रमीक्षसे । मेरुकूटप्रमाणान् स्वान् कथं दोषान पश्यसि ॥७॥ राष्ट्रवा भवन्तमस्माकं परमा प्रीतिरुद्गता । सदृशः सदृशेष्वेव रज्यन्तीति सुभाषितम् ॥८॥ सर्वेषामस्मदादीनां यथेप्सितविधायिनाम् । भवान् पूर्व पिशाचानां त्वं राजा परमेप्सितः || उन्मत्तेन्द्रध्वजं दवा भ्रमामः सकलां महीम् । उन्मत्तां प्रवणीकुर्मः समस्तां प्रत्यवस्थिताम् ॥१०॥ एवमुक्तमनुश्रित्य मोहे शिथिलतां गते । गुरुवाक्यभवं चाऽन्यत् स्मृत्वा हृीमानभून्नृपः ॥११॥ मुक्तमोहधनवातः प्रतिबोधमरीचिभिः । नृपदाक्षायणीमा राजते परमं तदा ॥१२॥ धनपकविनिमुक्तमिव शारदमम्बरम् । विमलं तस्य सनातं मानसं सत्वसङ्गतम् ॥१३॥ स्मृतैरमृतसम्पोहतशोको गुरूदितैः । पुरेव नन्दनस्वास्थ्यं दधानः शुशुभेतराम् ||१४||
अवलम्बितधीरत्वस्तैरेव पुरुषोत्तमः । छायां प्राप यथा मेरुर्जिनाभिषववारिभिः ॥१५॥ कि आप इस जीवरहित शरीरको व्यर्थ ही क्यों धारण कर रहे हैं ? ॥शा तब जिनका मन कलुषित हो रहा था ऐसे श्री रामदेवने उत्तम लक्षणोंके धारक लक्ष्मणके शरीरका भुजाओंसे आलिङ्गनकर कहा कि अरे अरे! तुम पुरुषोत्तम लक्ष्मणकी बुराई क्यों करते हो? ऐसे अमाङ्गलिक शब्दके कहनेमें क्या तुम्हें दोष नहीं लगता ? ॥२-८३॥ इस प्रकार जब तक रामका कृतान्तवक्त्रके जीवके साथ उक्त विवाद चल रहा था तब तक जटायुका जीव एक मृतक मनुष्यका शरीर लिये हए वहाँ आ पहुँचा ॥८४|| उसे सामने खड़ा देख रामने उससे पूछा कि तु मोह युक्त हुआ इस मृत शरीरको कन्धे पर क्यों रक्खे हुए है ? ॥८॥ इसके उत्तरमें जटायुके जीवने कहा कि तुम विद्वान् होकर भी हमसे पूछते हो पर स्वयं अपने आपसे क्यों नहीं पूछते जो श्वासोच्छास तथा नेत्रोंकी टिमकार आदिसे रहित शरीरको धारण कर रहे हो ॥८६॥ दूसरेके तो बालके अग्रभाग बराबर सूक्ष्म दोषको जल्दीसे देख लेते हो पर अपने मेरुके शिखर बराबर बड़े-बड़े दोषोंको भी नहीं देखते हो ? ||७|| आपको देखकर हम लोगोंको बड़ा प्रेम उत्पन्न हुआ क्यों कि यह सूक्ति भी है कि सदृश प्राणी अपने ही सदृश प्राणीमें अनुराग करते हैं ॥८॥ इच्छानुसार कार्य करनेवाले हम सब पिशाचोंके आप सर्वप्रथम मनोनीत राजा है ॥५६॥ हम उन्मत्तोंके राजाकी ध्वजा लेकर समस्त पृथिवीमें घूमते फिरते हैं और उन्मत्त तथा प्रतिकूल खड़ी समस्त पृथिवीको अपने अनुकूल करने जाते हैं ।।१०|| इस प्रकार देवोंके वचनोंका आलम्बन पाकर रामका मोह शिथिल हो गया और वे गुरुओंके वचनोंका स्मरण कर अपनी मूर्खतापर लजित हो उठे ।।६१॥ उस समय जिनका मोहरूपी मेघ-समूहका आवरण दूर हो गया था ऐसे राजा रामचन्द्र रूपी चन्द्रमा प्रतिबोधरूपी किरणोंसे अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥२॥ उस समय धैर्यगुणसे सहित रामका मन मेघ-रूपी कीचड़से रहित शरद् ऋतुके आकाशके समान निर्मल हो गया था।६३॥ स्मरणमें आये तथा अमृतसे निर्मितकी तरह मधुर गुरुओंके वचनोंसे जिनका शोक हर लिया गया था ऐसे राम उस समय उस तरह अत्यधिक सशोभित हए थे जिस तरह कि पहले पुत्रोंके मिलाप-सम्बन्धी सखको धारण करते हए सुशोभित हुए थे ॥६४|| उस समय उन्हीं गुरुओंके वचनोंसे जिन्होंने धैर्य धारण किया था
१. श्रीमानभून्नृपः म ।
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