Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 404
________________ पद्मपुराणे बमणुश्वाधुना केन प्रकारेण स्वजीवितम् । धारयामः परा यत्र काऽप्येषा रामदेवता ॥ ५५ ॥ ईदृशी विक्रिया शक्तिः कुतो विद्याधरर्द्धिषु । किमिदं कृतमस्माभिरनालोचितकारिभिः ॥ ५६ ॥ विरुद्धा अपि हंसस्य' खद्योताः किं नु कुर्वते । यस्यामीषु सहस्राप्तं परिजाज्वल्यते जगत् ॥५७॥ प्रपलायितुकामानामपि नः साम्प्रतं सखे । नास्ति मार्गः सुभीमेऽस्मिन्बले स्तृणाति विष्टपम् ॥५८॥ महान्न मरणेऽप्यस्ति गुणो जीवन् हि मानवः । कदाचिदेति कल्याणं स्वकर्मपरिपाकतः ॥ ५६ ॥ बुदबुदा इव यद्यस्मिन्नमीभिः सैनिकोर्मिभिः । आनीताः स्म प्रविध्वंसं किं भवेदर्जितं ततः ॥ ६० ॥ इत्यन्योन्यकृताऽऽलापमुद्भूतपृथुवेपथु । विद्याधरबलं सर्वं जातमत्यन्तविह्वलम् ॥ ६१ ॥ विक्रियाक्रीडनं कृत्वा जटायुरिति पार्थिव । पलायनपथं तेषां दक्षिणं कृपया ददौ ॥ ६२ ॥ प्रस्पन्दमानचित्तास्ते कम्पमानशरीरकाः । भृशं ते खेचरा नेशुः श्येनत्रस्ता द्विजा इव ॥६३॥ तस्मै विभीषणायाऽग्रे दास्यामो नु किमुत्तरम् । का वा शोभाऽधुनाऽस्माकमत्यन्तोपहतात्मनाम् ॥ ६४ ॥ छाया दर्शयिष्यामः कया वक्त्र स्वदेहिनाम् । कुतो वा धृतिरस्माकं का वा जीवितशेमुषी ॥ ६५॥ अवधार्येति सव्रीडस्तस्मिन्निन्द्रजितात्मजः । प्राप्तो विरागमैश्वर्ये विभूतिं वोच्य दैविकीम् ॥ ६६ ॥ समेतश्चारुरत्नेन स्निग्धकैश्व सभूमिभिः । रतिवेगमुनेः पार्श्वे विशेषः श्रमणोऽभवत् ॥ ६७ ॥ ट्वाऽनन्तरदेहांत निर्मुक्तकलुषान्नृपान् । विद्युत्प्रहरणं देवः समहार्षीत् प्रभीषणः ||६८ || १८६ प्रकार पृथिवी और आकाश दोनोंको अयोध्याओंसे व्याप्त देखकर शत्रुओंकी वह सेना अभिमान - से रहित हो आपत्ति में पड़ गई ||५४ || सेना के लोग परस्पर कहने लगे कि जहाँ यह राम नामका कोई अद्भुत देव विद्यमान है वहाँ अब हम अपने प्राण किस तरह धारण करें-- जीवित कैसे रहें? ||५५॥ विद्याधरोंकी ऋद्धियों में ऐसी विक्रिया शक्ति कहाँ से आई ? बिना विचारे काम करनेवाले हमलोगोंने यह क्या किया ? ॥ ५६ ॥ | जिसकी हजार किरणोंसे व्याप्त हुआ जगत् सब ओरसे देदीप्यमान हो रहा है, बहुतसे जुगनूँ विरुद्ध होकर भी उस सूर्यका क्या कर सकते हैं ? ॥ ५७॥ जबकि यह भयंकर सेना समस्त जगत् में व्याप्त हो रही है तब हे सखे ! हम भागना भी चाहें तो भी भागने के लिए मार्ग नहीं है ||१८|| मरनेमें कोई बड़ा लाभ नहीं है क्योंकि जीवित रहनेवाला मनुष्य कदाचित् अपने कर्मोंके उदद्यवश कल्याणको प्राप्त हो जाता है ॥५६॥ यदि हम इन सैनिक रूपी तरङ्गों के द्वारा बबूलोंके समान नाशको भी प्राप्त हो गये तो उससे क्या मिल जायगा ? ॥६०॥ इस प्रकार जो परस्पर वार्तालाप कर रही थी तथा जिसे अत्यधिक कँपकँपी छूट रही थी ऐसी वह विद्याधरोंकी समस्त सेना अत्यन्त विह्वल हो गई || ६१ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! तदनन्तर जटायुके जीवने इस तरह विक्रिया द्वारा क्रीड़ाकर दयापूर्वक उन विद्याधर शत्रुओंको दक्षिण दिशाकी ओर भागनेका मार्ग दे दिया || ६२ ॥ इस प्रकार जिनके चित्त चचल तथा जिनके शरीर काँप रहे थे ऐसे वे सब विद्याधर बाजसे डरे पक्षियोंके समान बड़े वेगसे भागे ॥ ६३ ॥ अब आगे विभीषण के लिए क्या उत्तर देंगे ? इस समय जिनकी आत्मा एक दम दीन हो रही है ऐसे हम लोगोंकी क्या शोभा है ? || ६४ || हम अपने ही लोगोंको क्या कान्ति लेकर मुख दिखावेंगे ? हम लोगोंको धैर्य कहाँ हो सकता है ? अथवा जीवित रहनेकी इच्छा ही हम लोगों को कहाँ हो सकती है ? ||६५|| ऐसा निश्चय कर उनमें जो इन्द्रजितका पुत्र व्रजमाली था वह लज्जासे युक्त हो गया । यतश्च वह देवोंका प्रभाव देख चुका था अतः उसे अपने ऐश्वर्य में वैराग्य उत्पन्न हो गया । फल स्वरूप वह सुन्दके पुत्र चारुरत्न तथा अन्य स्नेहो जनोंके साथ, क्रोध छोड़ रतिवेग नामक मुनिके पास साधु हो गया ॥ ६६-६७।। भयभीत करनेके लिए जटायुका १. सूर्यस्य । 'हंसः पदयात्सूर्येषु' इत्यमर: । २. वेपथुः म० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492