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अष्टादशोत्तरशतं पर्व
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परं बिबुद्धभावश्च विषादपरिवर्जितः । जगाद धर्ममर्यादापालनार्थमिदं वचः ॥१२॥
__ उपजातिः शत्रुघ्न राज्यं कुरु मर्त्यलोके तपोवनं सम्प्रविशाम्यहं तु ।। सर्वस्पृहादूरितमानसामा पदं समाराधयितुं जिनानाम् ॥१२५॥ रागादहं नो खलु भोगलुब्धः मनस्तु निःसङ्गसमाधिराज्ये । समाश्रयिष्यामि तदेव देव त्वया समं नास्ति गतिर्ममान्या ॥१२६॥ कामोपभोगेषु मनोहरेषु सुहृत्सु सम्बन्धिषु बान्धवेषु ।
वस्तुष्वभीष्टेषु च जीवितेषु कस्यास्ति तृप्तिनूरवे भवेऽस्मिन् ॥१२७॥ इत्याचे पद्मपुराणे श्रीरविषेणाचार्यप्रणीते लक्ष्मणसंस्कारकरणं कल्याणमित्रदेवाभि
गमाभिधानं नामाष्टादशोत्तरशतं पर्व ॥११८।।
तदनन्तर वैराग्यपूर्ण हृदयके धारक विषादरहित रामने धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेवाले निम्नाङ्कित वचन शत्रुघ्नसे कहे ॥१२४॥ उन्होंने कहा कि हे शत्रुघ्न ! तुम मनुष्यलोकका राज्य करो। सब प्रकारकी इच्छाओंसे जिसका मन और आत्मा दूर हो गई है ऐसा मैं मुक्ति पदकी आराधना करनेके लिए तपोवनमें प्रवेश करता हूँ॥१२५।। इसके उत्तर में शत्रघ्नने कहा कि देव ! मैं रागके कारण भोगोंमें लुब्ध नहीं हूँ। मेरा मन निम्रन्थ समाधिरूपी राज्यमें लग रहा है इसलिए मैं आपके साथ उसी निर्ग्रन्थ समाधि रूप राज्यको प्राप्त करूँगा। इसके अतिरिक्त मेरी दूसरी गति नहीं है ॥१२६।। हे नरसूर्य ! इस संसारमें मनको हरण करनेवाले कामोपभोगोंमें, मित्रोंमें, सम्बन्धियोंमें, भाई-बान्धवमें, अभीष्ट वस्तुओंमें तथा स्वयं अपने आपके जीवनमें किसे तृप्ति हुई है ? ॥१२७।। इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराणमें लक्ष्मणके संस्कारक।
वर्णन करनेवाला एक सौ अठारहवाँ पर्व पूर्ण हुभा ॥११८॥
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