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भष्टादशोत्तरशतं पर्व
ततोऽगदद् यदि क्रोधो मयि देव कृतस्त्वया । ततोऽस्यात्र किमायातममृतस्वादिनोऽन्धसः ॥१४॥ इयं श्रीधर ते नित्यं दयिता मदिरोत्तमा। इमां तावत् पिब न्यस्ता चषके विकचोत्पले ॥१५॥ इत्युक्त्वा तां मुखे न्यस्य चकार सुमहादरः । कथं विशतु सा तत्र चार्वी संक्रान्तचेतने ॥१६॥ इत्यशेष क्रियाजातं जीवतीव स लचमणे। चकार स्नेहमूढात्मा मोघं निवेदवर्जितः ॥१७॥ गीतेः स चारुभिवणुवीणानिस्वनसजस्तैः । परासुरपि रामाज्ञां प्राप्तामापच लचमणः ॥१८॥ चन्दनाचितदेहं तं दोभ्या॑मुद्यम्य सस्पृहः । कृत्वाके मस्तकेऽचुम्बत् पुनर्गण्डे पुनः करे ॥१६॥ भपि लचमण किन्ते स्यादिदं सजातमीडशम् । न येन मुञ्चसे निद्रा सकृदेव निवेदय ॥२०॥ इति स्नेहमहाविष्टो यावदेष विचेष्टते । महामोहकृतासङ्ग कर्मण्युदयमागते ॥२१॥ सावद्विदितवृत्तान्ता रिपवः चोभमागता । परे तेजसि कालास्ते गर्जन्तो विषदा इव ॥२२॥ विरोधिताशया दुरं सामर्षा सुन्दनन्दनम् । चारुरत्नाख्यमाजग्मुरसौ कुशिमालिनम् ॥२३॥ उचे च 'मद्गुरोयेन मीत्वा सोदरकारको । पातालनगरे चासो राज्येऽस्थापि विराधितः ॥२४॥ वानरध्वजिनीचन्द्रं सुग्रीवं प्राप्य बान्धवम् । उदन्तोऽलम्भि कान्ताया रामेणाऽऽतिमता ततः ॥२५॥ उदन्वन्तं समुहाध्य नभोगैर्यानवाहनैः । द्वीपा विध्वंसितास्तेन लङ्क जेतुं युयुत्सुना ॥२६॥
नहीं होता है ॥१३।। तत्पश्चात् रामने कहा कि हे देव! तुम्हारा मुझपर क्रोध है तो यहाँ अमृतके समान स्वादिष्ट इस भोजनने क्या बिगाड़ा? इसे तो ग्रहण करो ॥१४॥ हे लक्ष्मीधर ! तुम्हें यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमलसे सुशोभित पानपात्रमें रखी हुई इस मदिराको पिओ ॥१५॥ ऐसा कहकर उन्होंने बड़े आदरके साथ वह मदिरा उनके मुखमें रख दी पर वह सुन्दर मदिरा निश्चेतन मुखमें कैसे प्रवेश करती ॥१६।। इस प्रकार जिनकी आत्मा स्नेहसे मूढ़ थी तथा जो वैराग्यसे रहित थे ऐसे रामने जीवित दशाके समान लक्ष्मणके विषयमें व्यर्थ ही समस्त क्रियाएँ कीं ॥१७॥ यद्यपि लक्ष्मण निष्प्राण हो चुके थे तथापि रामने उनके आगे वीणा बाँसुरी आदिके शब्दोंसे सहित सुन्दर संगीत कराया ॥१८॥ तदनन्तर जिसका शरीर चन्दनसे चर्चित था ऐसे लक्ष्मणको बड़ी इच्छाके साथ दोनों भुजाओंसे उठाकर रामने अपनी गोदमें रख लिया और उनके मस्तक कपोल तथा हाथका बार-बार चुम्बन किया ॥१६॥ वे उनसे कहते कि हे लक्ष्मण, तुमे यह ऐसा हो क्या गया जिससे तू नींद नहीं छोड़ता, एक बार तो बता ॥२०॥ इस प्रकार महामोहसे सम्बद्ध कर्मका उदय आनेपर स्नेह रूपी पिशाचसे आक्रान्त राम जब तक यहाँ यह चेष्टा करते हैं तब तक वहाँ यह वृत्तान्त जान शत्रु उस तरह क्षोभको प्राप्त हो गये जिस तरह कि परम तेजअर्थात् सूर्यको आच्छादित करनेके लिए गरजते हुए काले मेघ ॥२१-२२॥ जिनके अभिप्रायमें बहुत दूर तक विरोध समाया हुआ था तथा जो अत्यधिक क्रोधसे सहित थे ऐसे शत्रु, शम्बूकके भाई सुन्दके पुत्र चारुरत्नके पास गये और चारुरत्न उन सबको साथ ले इन्द्रजितके पुत्र वनमालीके पास गया ॥२३॥ उसे उत्तेजित करता हआ चारुरल बोला कि लक्ष्मणने हमारे काका और दोनोंको मारकर पाताल लंकाके राज्यपर विराधितको स्थापित किया ॥२४॥ तदनन्तर वानरवंशियोंकी सेनाको हर्षित करनेके लिए चन्द्रमा स्वरूप एवं भाईके समान हितकारी सुप्रीवको पाकर विरहसे पीड़ित रामने अपनी स्त्री सीताका समाचार प्राप्त किया ॥२।। तत्पश्चात् लंकाको जीतनेके लिए युद्ध करनेके इच्छुक रामने विद्याधरोंके साथ विमानों द्वारा समुद्रको लाँघकर
१. मद्गुरौ येन नीत्वा सोदरकारको म० । मीत्वा = हत्वा, सोदरकारको मम भ्रातृजनको श्री० टि०, Jain Education मम गुरुः सुन्दस्तस्य सोदरम् ।
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