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सप्तदशोत्तरशतं पर्व शर्कराधरणीयातेदुःखं प्राप्त मनुत्तमम् । श्रुत्वा तत्कस्य रोचेत मोहेन सह मित्रता ॥१२॥
आर्यावृत्तम् यस्य कृतेऽपि 'निमेषं नेच्छति दुःखानि विषयसुखसंसक्तः । पर्यटति च संसारे प्रस्तो मोहग्रहेण मत्तवदारमा ॥४३॥ एतद् दग्धशरीरं युक्तं त्यक्तुं कषायचिन्तायासम् । अन्यस्मादन्यतरं किं पुनरीविधं कलेवरभारम् ॥४॥ इत्युक्तोऽपि विविक्तं खेचररविणा विपश्चिता रामः ।
नोउमति लचमणमूर्ति गुरोरिवाऽऽज्ञां विनीतात्मा ॥४५॥ इत्याचे श्रीपद्मपुराणे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते लक्ष्मणवियोगविभीषणसंसारस्थितिवर्णनं
नाम सप्तदशोत्तरशतं पर्व ॥११७॥
स्थानपर इकट्ठा किया जाय तो वह ज्योतिषी देवोंके मार्गको भी उल्लंघन कर आगे जा सकता है ।।४।। नरक-भूमिमें गये हुए जीवोंने जो भारी दुःख उठाया है उसे सुन मोहके साथ मित्रता करना किसे अच्छा लगेगा ? ॥४२॥ विषय-सुखमें आसक्त हुआ यह प्राणी जिस शरीरके पीछे पलभरके लिए भी दुःख नहीं उठाना चाहता तथा मोहरूपी ग्रहसे ग्रस्त हुआ पागलके समान संसारमें भ्रमण करता रहता है, ऐसे कषाय और चिन्तासे खेद उत्पन्न करनेवाले इस शरीरको छोड देना ही उचित है क्योंकि इनका यह ऐसा शरीर क्या अन्य शरीरसे भिन्न है-विलक्षण है ? ॥४३-४४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि विद्याधरों में सूर्य स्वरूप बुद्धिमान् विभीषणने यद्यपि रामको इस तरह बहुत कुछ समझाया था तथापि उन्होंने लक्ष्मणका शरीर उस तरह नहीं छोड़ा जिस तरह कि विनयी शिष्य गुरुकी आज्ञा नहीं छोड़ता है ॥४५॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें लक्ष्मणके
वियोगको लेकर विभीषणके द्वारा संसारकी स्थितिका वर्णन __ करने वाला एकसौ सत्रहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥११७॥
१. निमिषं दुःखानि म० । २. -दन्यतरं पुनरीहग म० । Jain Education International
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