Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 398
________________ पद्मपुराणे जनन्यापि समाश्लिष्टं मृत्युर्हरति देहिनम् । पातालान्तर्गतं यद्वत् काद्रवेयं' द्विजोत्तमः २ ॥२८॥ हा भ्रातर्दयिते पुत्रेत्येवं क्रन्दन् सुदुःखितः । कालाहिना जगद्वयङ्गो प्रासतामुपनीयते ॥२६॥ करोम्येतत्करिष्यामि वदश्येवमनिष्टधीः । जनो विशति कालास्यं भीमं पोत इवार्णवम् ॥३०॥ जनं भवान्तरं प्राप्तमनुगच्छेज्जनो यदि । द्विष्टैरिष्टेश्व नो जातु जायेत विरहस्ततः ॥३१॥ परे स्वजनमानी यः कुरुते स्नेहसम्मतिम् । विशति क्लेशवह्नि स मनुष्यकलभो ध्रुवम् ॥३२॥ स्वजनौघाः परिप्राप्ताः संसारे येऽसुधारिणाम् । सिन्धुसैकतसङ्घाता अपि सन्ति न तत्समाः ॥३३॥ य एव लालितोऽन्यत्र विविधप्रियकारिणा । स एव रिपुतां प्राप्तो हन्यते तु महारुषा ॥ ३४ ॥ पीतौ पयोधरौ यस्य जीवस्य जननान्तरे । नस्ताहतस्य तस्यैव खाद्यते मांसमत्र धिक् ॥३५॥ स्वामीति पूजितः पूर्वं यः शिरोनमनादिभिः । स एव दासतां प्राप्तो हन्यते पादताडनैः ॥ ३६॥ विभोः पश्यत मोहस्य शक्तिं येन वशीकृतः । जनोऽन्विष्यति संयोग हस्तेनेव महोरगम् ॥३७॥ प्रदेशस्तिलमात्रोऽपि विष्टपे न स विद्यते । यत्र जीवः परिप्राप्तो न मृत्युं जन्म एव वा ॥२८॥ ताम्रादिकलिलं पीतं जीवेन नरकेषु यत् । स्वयम्भूरमणे तावत् सलिलं न हि विद्यते ॥ ३६ ॥ वराहभवयुक्तेन यो नीहारोऽशनीकृतः । मन्ये विन्ध्यसहस्रेभ्यो बहुशोऽत्यन्तदूरतः ॥४०॥ परस्परस्वनाशेन कृता या मूर्द्धसंहतिः । ज्योतिषां मार्गमुल्लङ्घ्य यायात्सा यदि रुध्यते ॥ ४१ ॥ ३८० क्या है ? ||२७|| जिस प्रकार पातालके अन्दर छिपे हुए नागको गरुड़ खींच लेता है उसी प्रकार माता से आलिङ्गित प्राणीको भी मृत्यु हर लेती है ||२८|| हाय भाई ! हाय प्रिये ! हाय पुत्र ! इस प्रकार चिल्लाता हुआ यह अत्यन्त दुःखी संसाररूपी मेंढक, कालरूपी साँपके द्वारा अपना ग्रास बना लिया जाता है ॥२६॥ 'मैं यह कर रहा हूँ और यह आगे करूँगा' इस प्रकार दुर्बुद्धि मनुष्य कहता रहता है फिर भी यमराजके भयंकर मुखमें उस तरह प्रवेश कर जाता है जिस तरह कि कोई जहाज समुद्र के भीतर ॥३०॥ यदि भवान्तर में गये हुए मनुष्यके पीछे यहाँ के लोग जाने लगें तो फिर शत्रु मित्र - किसीके भी साथ कभी वियोग ही न हो ||३१|| जो परको वजन मानकर उसके साथ स्नेह करता है वह नरकुञ्जर अवश्य ही दुःखरूपी अग्निमें प्रवेश करता है ||३२|| संसार में प्राणियोंको जितने आत्मीयजनोंके समूह प्राप्त हुए हैं समस्त समुद्रोंकी बालूके कण भी उनके बराबर नहीं हैं । भावार्थ - असंख्यात समुद्रों में बालू के जितने कण हैं। उनसे भी अधिक इस जीवके आत्मीयजन हो चुके हैं ||३३|| नाना प्रकारकी प्रियचेष्टाओं को करनेवाला यह प्राणी, अन्य भवमें जिसका बड़े लाड़-प्यारसे लालन-पालन करता है वही दूसरे भवमें इसका शत्रु हो जाता है और तीव्र क्रोध को धारण करनेवाले उसी प्राणीके द्वारा मारा जाता है ||३४|| जन्मान्तर में जिस प्राणी के स्तन पिये हैं, इस जन्म में भयभीत एवं मारे हुए उसी जीव माँस खाया जाता है, ऐसे संसारको धिक्कार है ||३५|| 'यह हमारा स्वामी है' ऐसा मानकर जिसे पहले शिरोनमन - शिर झुकाना आदि विनयपूर्ण क्रियाओंसे पूजित किया था वही इस जन्म में दासताको प्राप्त होकर लातों से पीटा जाता है ||३६|| अहो ! इस सामर्थ्यवान मोहकी शक्ति तो देखो जिसके द्वारा वशीभूत हुआ यह प्राणी इष्टजनोंके संयोगको उस तरह ढूँढ़ता फिरता है जिस तरह कि कोई हाथसे महानागको ॥ ३७॥ इस संसार में तिलमात्र भी वह स्थान नहीं है जहाँ यह जीव मृत्यु अथवा जन्मको प्राप्त नहीं हुआ हो ||३८|| इस जीवने नरकों में ताँबा आदिका जितना पिघला हुआ रस पिया है उतना स्वयंभूरमण समुद्र में पानी भी नहीं है ||३६|| इस जीवने सूकरका भव धारणकर जितने विष्ठाको अपना भोजन बनाया है मैं समझता हूँ कि वह हजारों विन्ध्याचलोंसे भी कहीं बहुत अधिक अत्यन्त ऊँचा होगा ||४०|| परस्पर एक दूसरे को मारकर जो मस्तकोंका समूह काटा है यदि उसे एक जगह रोका जाय - एक १. सर्पम् । २. गरुडः । ३. शक्तिर्येन म० । ४, स्वयंभूरमणो म० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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