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सप्तदशोत्तरशतं पर्व
ततो विदितवृत्तान्ताः सर्वे विद्याधराधिपाः । सह स्त्रीभिः समायातास्त्वरिताः कोशलां पुरीम् ॥ १ ॥ विभीषणः समं पुत्रैश्चन्द्रोदरनृपात्मजः । समेतः परिवर्गेण सुग्रीवः शशिवर्द्धनः ॥ २॥ बाप विप्लुतनेत्रास्ते सम्भ्रान्तमनसोऽविशन् । भवनं पद्मनाभस्य भरिताञ्जलयो नताः ॥३॥ विषादिनो विधिं कृत्वा पुरस्ताते महीतले । उपविश्य चणं स्थित्वा मन्दं व्यज्ञापयन्निदम् ॥४॥ देव यद्यपि दुर्मोचः शोकोऽयं परमाप्तजः । ज्ञातज्ञेयस्तथापि त्वमेनं सम्स्यक्तुमर्हसि ॥५॥ एवमुक्त्वा स्थितेषु वचः प्रोचे विभीषणः । परमार्थस्वभावस्य लोकतश्व विचक्षणः ॥६॥ अनादिनिधना राजन् स्थितिरेषा व्यवस्थिता । अधुना नेयमस्यैव प्रवृत्ता भुवनोदरे ॥७॥ जातेनाऽवश्य मर्त्तव्यमत्र संसारपअरे । प्रतिक्रियाऽस्ति नो मृत्योरुपायैर्विविधैरपि ॥८॥ आमा' नियतं देहे शोकस्यालम्बनं मुधा । उपायैर्हि प्रवर्त्तन्ते स्वार्थस्य कृतबुद्धयः ॥१॥ आक्रन्दितेन नो कश्चित्परलोकगतो गिरम् । प्रयच्छति ततः शोकं न राजन् कन्तु मर्हसि ॥ १० ॥ नारीपुरुषसंयोगाच्छरीराणि शरीरिणाम् । उत्पद्यन्ते व्ययन्ते च प्राप्तसाम्यानि बुदबुदैः ॥ ११ ॥ लोकपालसमेतानामिन्द्राणामपि नाकतः । नष्टा योनिजदेहानां प्रच्युतिः पुण्यसंक्षये ॥१२॥ गर्भाक्लिष्ट रुजाकीर्णे तृण बिन्दुचलाचले । क्लेदकैकससङ्घाते काऽऽस्था मर्त्यशरीरके ॥ १३ ॥ अजरामरणंमन्यः किं शोचति जनो मृतम् । मृत्युदंष्ट्रान्तर क्लिष्टमात्मानं किं न शोचति ॥ १४ ॥
समाचार मिलने पर समस्त विद्याधर राजा अपनी स्त्रियोंके साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी माये ॥१॥ अपने पुत्रोंके साथ विभीषण, राजा विराधित, परिजनोंसे सहित सुप्रीव और चन्द्रबर्धन आदि सभी लोग आये ॥२॥ जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे तथा मन घबड़ाये हुए थे ऐसे सब लोगोंने अञ्जलि बाँधे बाँधे रामके भवनमें प्रवेश किया || ३ || विषादसे भरे हुए सब लोग योग्य शिष्टाचार की विधि कर रामके आगे पृथिवीतलपर बैठ गये और क्षणभर चुपचाप बैठनेके बाद धीरे-धीरे यह निवेदन करने लगे कि हे देव ! यद्यपि परम इष्टजनके वियोग से उत्पन्न हुआ यह शोक दुःखसे छूटने योग्य है तथापि आप पदार्थके ज्ञाता हैं अतः इस शोकको छोड़ने के योग्य हैं ॥४-५॥ इस प्रकार कहकर जब सब लोग चुप बैठ गये तब परमार्थ स्वभाववाले आत्माके लौकिक स्वरूपके जाननेमें निपुण विभीषण निम्नाङ्कित वचन बोला || ६ | उसने कहा कि हे राजन! यह स्थिति अनादिनिधन है । संसारके भीतर आज इन्हीं एककी यह दशा नहीं हुई है ॥७॥ इस संसाररूपी पिंजड़े के भीतर जो उत्पन्न हुआ है उसे अवश्य मरना पड़ता है । नाना उपायोंके द्वारा भी मृत्युका प्रतिकार नहीं किया जा सकता ||८|| जब यह शरीर निश्चित ही विनश्वर है तब इसके विषयमें शोकका आश्रय लेना व्यर्थ है । यथार्थमें बात यह है कि जो कुशलबुद्धि मनुष्य हैं वे आत्महितके उपायोंमें ही प्रवृत्ति करते हैं ||६|| हे राजन ! परलोक गया हुआ कोई मनुष्य रोनेसे उत्तर नहीं देता इसलिए आप शोक करनेके योग्य नहीं हैं ॥१०॥ स्त्री और पुरुषके संयोग से प्राणियोंके शरीर उत्पन्न होते हैं और पानीके बबूलेके समान अनायास ही नष्ट हो जाते हैं ||११|| पुण्यक्षय होनेपर जिनका वैक्रियिक शरीर नष्ट हो गया है ऐसे लोकपालसहित इन्द्रों को भी स्वर्गसे च्युत होना पड़ता है ॥ १२ ॥ गर्भके क्लेशोंसे युक्त, रोगों से व्याप्त, तृणके ऊपर स्थित बूँदके समान चञ्चल तथा मांस और हड्डियोंके समूह स्वरूप मनुष्यके तुच्छ शरीर - में क्या आदर करना है ? || १३ || अपने आपको अजर-अमर मानता हुआ यह मनुष्य मृत १. अनार्ये व अनाय्ये ख०, अनायो क० । २. नष्टयोनिजवेदानां म० ।
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