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षोडशोत्तरशतं पर्व
आर्याच्छन्दः पूर्वोपचितमशुद्धं नूनं मे कर्म पाकमायातम् । भ्रातृवियोगव्यसनं प्राप्तोऽस्मि यदीशं कष्टम् ॥४३॥ युद्ध इव शोकभाजश्चैतन्यसमागमानन्दम् ।
उत्तिष्ठ मानवरवे कुरु सकृदत्यन्तखिन्नस्य ॥४४॥ इत्याचे श्रीपद्मपुराणे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते रामदेवविप्रलापं नाम
षोडशोत्तरशतं पर्व ॥११६॥
हो रही है ॥४२॥ जान पड़ता है कि मेरा पूर्वोपार्जित पाप कर्म उदयमें आया है इसीलिए मैं भाईके वियोगसे दुःखपूर्ण ऐसे कष्टको प्राप्त हुआ हूँ॥४३॥ हे मानव सूर्य ! जिस प्रकार तुने पहले युद्ध में सचेत हो मुझ शोकातुरके लिए आनन्द उत्पन्न किया था उसी प्रकार अब भी उठ और अत्यन्त खेदसे खिन्न मेरे लिए एक बार आनन्द उत्पन्न कर ॥४४॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराणमें श्रीरामदेवके विप्रलापका वर्णन करनेवाला एक सौ सोलहवाँ पर्व समाप्त हुआ॥११६॥
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