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अष्टादशोत्तरशतं पर्व
सुग्रीवाद्यस्ततो भूपैविज्ञप्तं देव साम्प्रतम् । चितां कुर्मो नरेन्द्रस्य देहं संस्कारमापय ॥१॥ कलुषारमा जगादासौ मातृभिः पितृभिः समम् । चितायामाशु दह्यन्तां भवन्तः सपितामहाः ॥२॥ यः कश्चिद् विद्यते बन्धुर्युष्माकं पापचेतसाम् । भवन्त एव तेनाऽमा व्रजन्तु निधनं द्रुतम् ॥३॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गच्छामः प्रदेशं लक्ष्मणाऽपरम् । शृणुमो नेदृशं यत्र खलानां कटुकं वचः ॥॥ एवमुक्त्वा तनु धातुजिघृक्षारस्य सत्त्वरम् । पृष्ठस्कन्धादि राजानो ददुः सम्भ्रमवत्तिनः ॥५॥ अविश्वसन स तेभ्यस्तु स्वयमादाय लघमणम् । प्रदेशमपरं यातः शिशुर्विषफलं यथा ॥६॥ जगौ वाष्पपरीतादो भ्रातः किं सुप्यते चिरम् । उत्तिष्ठ वर्तते वेला स्नानभूमिनिषेव्यताम् ॥७॥ इत्युक्त्वा तं मृतं कृत्वा साश्रये स्नानविष्टर । अभ्यषिञ्चन्महामोहो हेमकुम्भाम्भसा चिरम् ।।८।। अलङ्कृस्य च निःशेषभूषणमुकुटादिभिः । सदाज्ञोऽज्ञापयत् क्षिप्रं भुक्तिभूसत्कृतानिति ॥६॥ नानारत्नशरीराणि जाम्बूनदमयानि च । भाजनानि विधीयन्तां भन्नं चाऽऽनीयतां परम् ॥१०॥ समुपाहियतामच्छा बाढं कादम्बरी वरा । विचित्रमुपदंश च रसबोधनकारणम् ॥११॥ एवमाज्ञां समासाद्य परिवर्गेण सादरम् । तथाविधं कृतं सर्व नाथबुद्धयनुवतिना ॥१२॥ लक्ष्मणस्यान्तरास्यस्य राघवः पिण्डमादधे । न त्वविजिनेन्द्रोक्तमभव्यश्रवणे यथा। ॥१३॥
अथानन्तर सुग्रीव आदि राजाओंने कहा कि हे देव ! हम लोग चिता बनाते हैं सो उसपर राजा लक्ष्मीधरके शरीरको संस्कार प्राप्त कराइए ॥११॥ इसके उत्तरमें कुपित होकर रामने कहा कि चितापर माताओं, पिताओं और पितामहोंके साथ आप लोग ही जलें ॥२॥ अथवा पाप पूर्ण विचार रखनेवाले आप लोगोंका जो भी कोई इष्ट बन्धु हो उसके साथ आप लोग ही शीघ्र मृत्यको प्राप्त हों॥३॥ इस प्रकार अन्य सब राजाओंको उत्तर देकर वे लक्ष्मणके प्रति बोले कि भाई लक्ष्मण ! उठो, उठो, चलो दूसरे स्थानपर चलें। जहाँ दुष्टोंके ऐसे वचन नहीं सुनने पड़ें ॥४॥ इतना कहकर वे शीघ्र ही भाईका शरीर उठाने लगे तब घबड़ाये हुए राजाओंने उन्हें पीठ तथा कन्धा आदिका सहारा दिया ॥५॥ राम, उन सबका विश्वास नहीं रखते थे इसलिए स्वयं अकेले ही लक्ष्मणको लेकर उस तरह दूसरे स्थानपर चले गये जिस तरह कि बालक विषफलको लेकर चला जाता है ॥६॥ वहाँ वे नेत्रोंमें आँसू भरकर कहे कि भाई ! इतनी देर क्यों सोते हो ? उठो, समय हो गया, स्नान-भूमिमें चलो ।।जा इतना कहकर उन्होंने मृत लक्ष्मणको आश्रयसहित (टिकनेके उपकरणसे सहित) स्नानकी चौकीपर बैठा दिया
और स्वयं महामोहसे युक्त हो सुवर्णकलशमें रक्खे जलसे चिरकाल उसका अभिषेक करते रहे॥८॥ तदनन्तर मुकुट आदि समस्त आभषणोंसे अलंकृत कर, भोजन-गृहके अधिकारियोंको शीघ्र ही आज्ञा दिलाई कि नाना रत्नमय एवं स्वर्णमय पात्र इकट्ठ कर उनमें उत्तम भोजन लाया जाय ॥६-१०॥ उत्तम एवं स्वच्छ मदिरा लाई जाय तथा रससे भरे हुए नाना प्रकारके स्वादिष्ट व्यञ्जन उपस्थित किये जावें। इस प्रकार आज्ञा पाकर स्वामीकी इच्छानुसार काम करनेवाले सेवकोंने आदरपूर्वक सब सामग्री लाकर रख दी ॥११-१२॥
तदनन्तर रामने लक्ष्मणके मुखके भीतर भोजनका ग्रास रक्खा। पर वह उस तरह भीतर प्रविष्ट नहीं हो सका, जिस तरह कि जिनेन्द्र भगवान्का वचन अभव्यके कानमें प्रविष्ट
१. व्यञ्जनम् । २. लक्ष्मणस्य + अन्तर् + आस्यस्य इतिच्छेदः ।
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