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षोडशोत्तरशतं पर्व
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किं करोमि व गच्छामि त्वया विरहितोऽधुना। स्थानं तमानुपश्यामि जायते यत्र निर्वृतिः ॥१५॥ आसेचनकमेतत् पश्याम्यद्यापियक्क म अनुरक्तात्मकं तरिक त्यक्तुं समुचितं तव ॥१६॥ मरणव्यसने भ्रातुरपूर्वोऽयं ममानकम् । दग्धुं शोकानलः सक्तः किं करोमि विपुण्यकः ॥१०॥ न कृशानुर्दहन्येवं नवं शोषयते विषम् । उपमानविनिमुक्तं यथा भ्रातुः परायणम् ॥१८॥ अहो लचमीधर क्रोधधयं संहर साम्प्रतम् । वेलाऽतीताऽनगाराणां महर्षीणामियं हि सा ॥१६॥ अयं रविरुपैत्यस्तं वीरस्वैतानि साम्प्रतम् । पद्मानि त्वत्सनिद्रातिसमानि सरसां जले ॥२०॥ शय्यां व्यरचयत् क्षिप्रं कृत्वा विष्णु भुजान्तरे । व्यापारान्तरनिर्मुक्तः स्वप्तुं रामः प्रचक्रमे ॥२१॥ श्रवणे देवसद्भावं ममैकस्य निवेदय । केनासि कारणेनैतामवस्थामीहशीमितः ॥२२॥ प्रसन्नचन्द्रकान्तं ते वक्त्रमासीन्मनोहरम् । अधुना विगतच्छायं कस्मादीहगिदं स्थितम् ॥२३॥ मृदुप्रभञ्जनाऽऽधूतकरपल्लवसन्निभे । आस्तां निरीक्षणे कस्मादधुना म्लानिमागते ॥२४॥ अहि हि किमिष्टं ते सर्व सम्पादयाम्यहम् । एवं न शोभसे विष्णो सब्यापारं मुखं कुरु ॥२५॥ देवी सीता स्मृता किन्ते समदुःखसहायिनी । परलोकं गता साध्वी विषण्णोऽसि भवेत्ततः ॥२६॥ विषादं मुञ्च लचमीश विरुद्धा खगसंहतिः । अवस्कन्दागता सेयं साकेतामवगाहते ॥२७॥ क्रुद्धस्यापीदृशं वक्त्रं मनोहर न जातुचित् । तवाऽऽसीदधुना वत्स मुञ्च मुख विचेष्टितम् ॥२८॥
करुण रुदन करती हुई इन व्याकुल स्त्रियोंको मना क्यों नहीं करते हो? ॥१४॥ अब तेरे विनाक्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? वह स्थान नहीं देखता हूँ जहाँ पहुँचनेपर सन्तोष उत्पन्न हो सके ॥१५।। जिसे देखते-देखते तृप्ति ही नहीं होती थी ऐसे तेरे इस मुखको मैं अब भी देख रहा हूँ फिर अनुरागसे भरे हुए मुझे छोड़ना क्या तुझे उचित था ? ||१६।। इधर भाईपर मरणरूपी संकट पड़ा है उधर यह अपूर्व शोकाग्नि मेरे शरीरको जलानेके लिए तत्पर है, हाय मैं अभागा क्या करूँ ? ॥१७॥ भाईका उपमातीत मरण शरीरको जिस प्रकार जलाता और सुखाता है उस प्रकार न अग्नि जलाती है और न विष सुखाता है ॥१८॥ अहो लक्ष्मण ! इस समय क्रोधकी आसक्तिको दूर करो। यह गृहत्यागी मुनियोंके संचारका समय निकल गया ॥१६|| देखो, यह सूर्य अस्त होने जा रहा है और तालाबोंके जलमें कमल तुम्हारे निद्रा निमीलित नेत्रोंके समान हो रहे हैं ।।२०।। यह कहकर अन्य सब कामोंसे निवृत्त रामने शीघ्र ही शय्या बनाई और लक्ष्मण को छातीसे लगा सोनेको उपक्रम किया ॥२१॥ वे कहते कि हे देव ! इस समय मैं अकेला हूँ । आप मेरे कानमें अपना अभिप्राय बता दो कि किस कारणसे तुम इस अवस्थाको प्राप्त हुए हो ? ॥२२॥ तुम्हारा मनोहर मुख तो उज्ज्वल चन्द्रमाके समान सुन्दर था पर इस समय यह ऐसा कान्तिहीन कैसे हो गया ? ॥२३॥ तुम्हारे नेत्र मन्द-मन्द वायुसे कम्पित पल्लबके समान थे फिर इस समय म्लानिको प्राप्त कैसे हो गये ? ॥२४॥ कह, कह, तुझे क्या इष्ट है ? मैं सब अभी ही पूर्ण किये देता हूँ । हे विष्णो ! तू इस प्रकार शोभा नहीं देना, मुखको व्यापारसहित कर अर्थात् मुखसे कुछ बोल ॥२५॥ क्या तुझे सुख-दुःखमें सहायता देनेवाली सीता देवीका स्मरण हो आया है परन्तु वह साध्वी तो परलोक चली गई है क्या इसी लिए तुम विषादयुक्त हो ॥२६॥ हे लक्ष्मीपते ! विषाद छोड़ो, देखो विद्याधरोंका समूह विरुद्ध होकर आक्रमणके लिए आ पहुँचा है और अयोध्यामें प्रवेश कर रहा है ।।२७॥ हे मनोहर ! कभी क्रुद्ध दशामें भी तुम्हारा ऐसा मुख नहीं हुआ फिर अब क्यों रहा है ? हे वत्स ! ऐसी विरुद्ध चेष्टा अब तो छोड़ो ॥२८॥
१. वैमुख्यम् , मरणमित्यर्थः । २. विषण्णासि म० । ३. विद्याधरसमूहः ।
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