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पञ्चदशोत्तरशतं पर्व
धिगसारं मनुष्यत्वं नाऽतोऽस्स्यन्यन्महाधमम् । मृत्युर्यच्छत्यवस्कन्दं यदज्ञातो निमेषतः ॥१५॥ यो न नियूंहितं शक्यः सुरविद्याधरैरपि । नारायणोऽप्यसौ नीतः कालपाशेन 'वश्यताम् ॥५६॥ आनाय्येव शरीरेण किमनेन धनेन च । अवधायेति सम्बोधं वैदेहीजावुपेयतुः ॥५७॥ पुनर्गर्भाशया भीती नवा तातक्रमद्वयम् । महेन्द्रोदयमुद्यानं शिबिकाऽवस्थितौ गतौ ॥५॥ तत्रामृतस्वरामिख्यं शरणीकृत्य संयतम् । बभूवतुर्महाभागौ श्रमणौ लवणाङ्कुशौ ॥५६॥ गृखतोरनयोर्दीक्षां तदा सत्तमचेतसोः । पृथिव्यामभवद् बुद्धिमृत्तिकागोलकाहिता ॥६०॥ एकतः पुत्रविरहो भ्रातृमृत्स्त्रशमन्यतः । इति शोकमहावर्ते परावर्तत राघवः ॥६॥ राज्यतः पुत्रतश्चापि स्वभूताजीवितादपि । तथाऽपि दयितोऽतोऽस्य परं लचमीधरः प्रियः ॥१२॥
आर्यागीतिच्छन्दः कर्मनियोगेनैवं प्राप्तेऽवस्थामशोभनामाप्तजने । सशोकं वैराग्यं च प्रतिपद्यन्ते विचित्रचित्ताः पुरुषाः ॥१३॥ कालं प्राप्य जनानां किनिञ्च निमित्तमात्रकं परभावम् ।
सम्बोधरविरुदेति स्वकृतविपाकेऽन्तरङ्गहेतौ जाते ॥६॥ इत्याचे श्रीपद्मपुराणे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्त लवणाङकुशतपोऽभिधानं नाम
पञ्चदशोत्तरशतं पर्वे ॥११५।।
विचार करने लगे कि सारहीन इस मनुष्य-पर्यायको धिक्कार हो। इससे बढ़कर दूसरा महानीच नहीं है क्योंकि मृत्यु बिना जाने ही निमेषमात्रमें इसपर आक्रमण कर देती है ।।५४-५५॥ जिसे देव और विद्याधर भी वश नहीं कर सके थे ऐसा यह नारायण भी कालके पाशसे वशीभूत अवस्थाको प्राप्त हो गया ।।५६।। इन नश्वर शरीर और नश्वर धनसे हमें क्या आवश्यकता है ? ऐसा विचारकर सीताके दोनों पुत्र प्रतिबोधको प्राप्त हो गये ।।५७॥ तदनन्तर 'पुनः गर्भवासमें न जाना पड़े' इससे भयभीत हुए दोनों वीर, पिताके चरण-युगलको नमस्कार कर पालकीमें बैठ महेन्द्रोदय नामक उद्यान में चले गये ॥५८।। वहाँ अमृतस्वर नामक मुनिराजकी शरण प्राप्तकर दोनों बड़भागी मुनि हो गये ॥५६|| उत्तम चित्तके धारक लवण और अंकुश जब दीक्षा ग्रहण कर रहे थे तब विशाल पृथिवीके ऊपर उनकी मिट्टीके गोलेके समान अनादरपूर्ण बुद्धि हो रही थी ॥६०॥ एक ओर पुत्रोंका विरह और दूसरी ओर भाईकी मृत्युको दुःख-इस प्रकार राम शोक रूपी बड़ी भँवर में घूम रहे थे ॥६१॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि रामको लक्ष्मण राज्यसे, पुत्रसे, स्त्रीसे और अपने द्वारा धारण किये जीवनसे भी कहीं अधिक प्रिय थे ॥६२॥ संसारमें मनुष्य नाना प्रकारके हृदयके धारक हैं इसीलिए कर्मयोगसे आप्तजनोंके ऐसी अशोभन अवस्थाको प्राप्त होनेपर कोई तो शोकको प्राप्त होते हैं और कोई वैराग्यको प्राप्त होते हैं ॥६३॥ जब समय पाकर स्वकृत कर्मका उदयरूप अन्तरङ्ग निमित्त मिलता है तब बाह्यमें किसी भी परपदार्थका निमित्त पाकर जीवोंके प्रतिबोध रूपी सूर्य उदित होता है उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ॥६४॥ इस प्रकार पार्षनामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा विरचित पद्मपुराणमें लक्ष्मणका मरण
और लवणांकुशके तपका वर्णन करनेवाला एकसौ पन्द्रहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥११५।।
१. पश्यताम् म० । २. दयितातोऽस्य म० । ३. स (निः) शोकं वैराग्यं म । स न शोकं वैराग्यं च ब० ।
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