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षोडशोत्तरशतं पर्व
कालधर्म परिप्राप्ते राजन् लक्ष्मणपुङ्गवे । त्यक्तं युगप्रधानेन रामेण व्याकुलं जगत् ॥१॥ स्वरूपमृदु सगन्धं स्वभावेन हरेर्वपुः । जीवेनाऽपि परित्यक्तं न पद्माभस्तदाऽत्यजत् ॥२॥ आलिङ्गति निधायाङ्के मार्ष्टि जिघ्रति निङ्क्षति । निषीदति समाधाय सस्पृहं भुजपञ्जरे ॥३॥ अवाप्नोति न विश्वासं क्षणमप्यस्य मोचने । बालोऽमृतफलं यद्वत् स तं मेने महाप्रियम् ॥ ४॥ विललाप च हा भ्रातः किमिदं युक्तमीदृशम् । यत्परित्यज्य मां गन्तुं मतिरेकाकिना कृता ॥५॥ ननु नाsहं किमु ज्ञातस्तवः स्वद्विरहासहः । यन्मां निचिप्य दुःखाग्नावकस्मादिदमीहसे ॥ ६ ॥ हातात किमिदं क्रूरं परं व्यवसितं स्वया । यदसंवाद्य मे लोकमन्यं दतं प्रयाणकम् ॥ ७॥ प्रयच्छ सकृप्याशु वत्स प्रतिवचोऽमृतम् । दोषात् किं नाऽसि किं क्रुद्धो ममापि सुविनीतकः ॥ ८ ॥ कृतवानसि नो जातु मानं मयि मनोहर । अन्य एवाऽसि किं जातो वद वा किं मया कृतम् ॥ ६ ॥ दूरादेवान्यदा दृष्ट्वा दवाऽभ्युत्थानमाहतः । रामं सिंहासने कृत्वा महीपृष्ठं न्यसेवयः ॥ १० ॥ अधुना मे "शिरस्यस्मिन्निन्दुकान्तमखावलौ । पादेऽपि लक्ष्मणन्यस्ते रुपे मृश्यति नो कथम् ||११| देव स्वरितसिष्ठ मम पुत्रौ वनं गतौ । दूरं न गच्छतो यावत्तावत्तावानयामहे ॥ १२ ॥ स्वया विरहिता एताः कृतार्तकुररीरवाः । भवद्गुणग्रहग्रस्ता विलोलम्ति महीतले ॥ १३ ॥
टहार शिरोरत्न मेखला कुण्डलादिकम् । भक्रन्दन्तं प्रियालोकं वारयस्याकुलं न किम् ॥ १४ ॥
अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! लक्ष्मणके मृत्युको प्राप्त होनेपर युगप्रधान रामने इस व्याकुल संसारको छोड़ दिया || १ | उस समय स्वरूप से कोमल और स्वभाव सुगन्धित नारायणका शरीर यद्यपि निर्जीव हो गया था तथापि राम उसे छोड़ नहीं रहे थे ||२|| वे उसका आलिङ्गन करते थे, गोदमें रखकर उसे पोंछते थे, सूँघते थे, चूमते थे और बड़ी उमंग के साथ भुजपंजर में रखकर बैठते थे ||३|| इसके छोड़ने में वे क्षणभर के लिए भी विश्वासको प्राप्त नहीं होते थे। जिस प्रकार बालक अमृत फलको महाप्रिय मानता है । उसी प्रकार वे उस मृत शरीर को महाप्रिय मानते थे ||४|| कभी विलाप करने लगते कि हाय भाई ! क्या तुझे यह ऐसा करना उचित था। मुझे छोड़कर अकेले ही तूने चल दिया ||५|| क्या तुझे यह विदित नहीं कि मैं तेरे बिरहको सहन नहीं कर सकता जिससे तू मुझे दुःख रूपी अग्निमें डालकर अकस्मात् यह करना चाहता है ||६|| हाय तात ! तूने यह अत्यन्त कर कार्य क्यों करना चाहा जिससे कि मुझसे पूछे बिना ही परलोकके लिए प्रयाण कर दिया || ७|| हे वत्स ! एक बार तो प्रत्युत्तर रूपी अमृत शीघ्र प्रदान कर । तू तो बड़ा विनयवान था फिर दोषके बिना ही मेरे ऊपर भी कुपित क्यों हो गया है ? ||८|| हे मनोहर ! तूने मेरे ऊपर कभी मान नहीं किया, फिर अब क्यों अन्यरूप हो गया है ? कह, मैंने क्या किया है ? | ६ || तू अन्य समय तो रामको दूर से ही देखकर आदरपूर्वक खड़ा हो जाता था और उसे सिंहासनपर बैठाकर स्वयं पृथिवीपर नीचे बैठता था || १० || हे लक्ष्मण ! इस समय चन्द्रमा के समान सुन्दर नखावलीसे युक्त तेरा पैर मेरे मस्तकपर रखा है फिर भी तू क्रोध ही करता है क्षमा क्यों नहीं करता ? ॥ ११॥ हे देव ! शीघ्र उठ, मेरे पुत्र वनको चले गये हैं सो जब तक वे दूर नहीं पहुँच जाते हैं तब तक उन्हें वापिस ले आवें ||१२|| तुम्हारे गुणग्रहणसे ग्रस्त ये स्त्रियाँ तुम्हारे बिना कुररीके समान करुण शब्द करती हुई पृथिवीतलमें लोट रही हैं ॥१३॥ हार, चूड़ामणि, मेखला तथा कुण्डल आदि आभूषण नीचे गिर गये हैं ऐसी
१. स्वरूपं मृदु म० । २. चुम्बति । ३. माहृतः म० । ४ निषेचय म० । ५. सरस्यस्मिन् ।
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