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पद्मपुराणे
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ईदृशं लक्ष्मणं वीचय विमुक्तं स्वशरीरिणा । उद्वेगोरुभयाक्रान्तः प्रसिष्वेदापराजितः ॥४१॥ trisit दीनदीनास्य मृच्छंमानो मुहुर्मुहुः । वाष्पाकुलेक्षणोऽपश्यदस्याङ्गानि समन्ततः ॥४२॥ नक्षतं नखरेखाया अपि तुल्यमिहेच्यते । अवस्थामीदृशीं केन भवेदयमुपागतः ॥४३॥ इति ध्यायन् समुद्भूतवेपथुस्तद्विदं जनम् । आह्नाययद्विषण्णात्मा तूर्णं विद्वानपि स्वयम् ॥ ४४ ॥ यदा वैद्यगणैः सर्वैर्मन्त्रोपधिविशारदैः । प्रतिशिष्टः कलापारैः परीचय धरणीधरः ॥ ४५ ॥ तदाहताशतां प्राज्ञो रामो मूच्छ समागतः । ४पर्यासे वसुधापृष्ठे छिनमूलस्तरुर्यथा ॥ ४६ ॥ हरिश्चन्दननीरैश्व तालवृन्तानिलैनिभैः । कृच्छ्रेण व्याजितो मोहं "विललाप सुबिह्वलः ॥४७॥ समं शोकविषादाभ्यामसौ पीडनमाश्रितः । उत्ससर्ज यदभ्रूणां प्रवाहं पिहिताननम् ॥४८॥ वाष्पेण विहितं वक्त्रं रामदेवस्य लक्षितम् । विरलाम्भोदसंवीतचन्द्र मण्डलसन्निभम् ॥४१॥ अत्यन्त विक्रवीभूतं तमालोक्य तथाविधम् । वितानतां परिप्रापदन्तः पुरमहार्णवः ॥ ५० ॥ दुःखसागर निभाः शुध्यदङ्गा वरस्त्रियः । भृशं व्यानशिरे वाष्पाऽऽक्रन्दाभ्यां रोदसी समम् ॥ ५१ ॥ हा नाथ भुवनानन्द सर्वसुन्दरजीवित । प्रयच्छ दयितां वाचं क्वासि यातः किमर्थकम् ॥५२॥ अपराधाडते कस्मादस्मानेवं विमुञ्चसि । नन्वाऽङ्गः सत्यमप्यास्ते जने 'तिष्ठति नो चिरम् ॥५३॥ एतस्मिन्नन्तरे श्रुत्वा तद्वस्तु लवणाङ्कुशौ । विषादं परमं प्राप्ताविति चिन्तामुपागतौ ॥५४॥
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चेष्टाओंसे रहित हो गया था ||४०|| इस प्रकार लक्ष्मण को अपनी आत्मासे विमुक्त देख उद्वेग तथा तीव्र भयसे आक्रान्त राम पसीनासे तर हो गये || ४१ ||
अथानन्तर जिनका मुख अत्यन्त दीन हो रहा था, जो बार-बार मूच्छित हो जाते थे, और जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे, ऐसे राम सब ओरसे उनके अंगों को देख रहे थे ||४२ || वे कह रहे थे कि इस शरीर में कहीं नखकी खरोंच बराबर भी तो घाव नहीं दिखाई देता फिर यह ऐसी अवस्थाको किसके द्वारा प्राप्त कराया गया ? - इसकी यह दशा किसने कर दी ? ॥ ४३ ॥ ऐसा विचार करते-करते रामके शरीर में कँपकँपी छूटने लगी तथा उनकी आत्मा विषादसे
गई । यद्यपि वे स्वयं विद्वान् थे तथापि उन्होंने शीघ्र ही इस विषयके जानकार लोगों को बुलवाया ||४४|| जब मन्त्र और औषधिमें निपुण, कलाके पारगामी समस्त वैद्योंने परीक्षा कर उत्तर दे दिया तब निराशाको प्राप्त हुए राम मूर्च्छाको प्राप्त हो गये और उखड़े वृक्षके समान पृथिवीपर गिर पड़े ||४५ - ४६|| जब हार, चन्दन मिश्रित जल और तालवृन्तके अनुकूल पवनके द्वारा बड़ी कठिनाईसे मूर्च्छा छुड़ाई गई तब अत्यन्त विह्वल हो विलाप करने लगे ॥४७॥ चूँकि राम शोक और विषादके द्वारा साथ ही साथ पीड़ाको प्राप्त हुए थे इसीलिए वे मुखको आच्छादित करनेवाला अश्रुओंका प्रवाह छोड़ रहे थे || ४८ | उस समय आँसुओंसे आच्छादित रामका मुख बिरले - बिरले मेघोंसे टँके चन्द्रमण्डलके समान जान पड़ता था ॥ ४६ ॥ उस प्रकार के गम्भीर हृदय रामको अत्यन्त दुःखी देख अन्तःपुर रूपी महासागर निर्मर्याद अवस्थाको प्राप्त हो गया अर्थात् उसके शोककी सीमा नहीं रही ||५० || जो दुःखरूपी सागर में निमग्न थीं तथा जिनके शरीर सूख गये थे ऐसी उत्तम स्त्रियोंने अत्यधिक आँसू और रोनेकी ध्वनिसे पृथिवी तथा आकाशको एक साथ व्याप्त कर दिया था ॥५१॥ वे कह रही थीं कि हा नाथ ! हा जगदानन्द ! हा सर्वसुन्दर जीवित ! प्रिय वचन देओ, कहाँ हो ? किस लिए चले गये हो ? || ५२ || इस तरह अपराधके विना ही हमलोगोंकों क्यों छोड़ रहे हो ? और अपराध यदि सत्य भी हो तो भी वह मनुष्य में दीर्घ काल तक नहीं रहता ||२३||
इसी बीच में यह समाचार सुनकर परम विषादको प्राप्त हुए लवण और अंकुश इस प्रकार १ रामः । २ - मिहेष्यते म० । ३. अवस्थां कीदृशीं म० । ४. पर्याप्तो म० । ५. विललाप म० । ६. विहिताननम् म० । ७. विहितं म० । ८. तिष्ठति म० ज० ।
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