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चतुर्दशोत्तरशतं पर्व
मष्टवीराणां ज्ञात्वा वायुसुतस्य च । रामो जहास किं भोगो भुक्तस्तैः कातरैरिति ॥ १ ॥ सन्तं सन्त्यज्य ये भोगं प्रव्रजन्त्यायतेक्षणाः । नूनं ग्रहगृहीतास्ते वायुना वा वशीकृताः ॥ २ ॥ नूनं तेषां न विद्यन्ते कुशला वैद्यवार्तिकाः । यतो मनोहरान् कामान्परित्यज्य व्यवस्थिताः ॥३॥ एवं भोग महासङ्गसौख्यसागरसेविनः । आसीत्तस्य जढा बुद्धिः कर्मणा वशमीयुषः ॥ ४ ॥ "भुज्यमानाऽल्पसौख्येन संसारपदमीयुषाम् । प्रायो विस्मयते सौख्यं श्रुतमप्यतिसंसृति ॥५॥ एवं तयोर्महाभोगमग्नयोः प्रेमबद्धयोः । पद्मवैकुण्ठयोः कालो धर्मकुण्ठो विवर्त्तते ॥ ६ ॥ अथान्यदा समायातः सौधर्मेन्द्रो महाद्युतिः । ऋद्ध्या परमया युक्तो धैर्यगाम्भीर्यसंस्थितः ॥७॥ सेवितः सचिवैः सर्वैर्नानालङ्कारधारिभिः । कार्त्तस्वरमहाशैल इव गण्डमहीधरः ||८|| सुखं तेजःपरिच्छन्ने निषण्णः सिंहविष्टरे । सुमेरुशिखरस्थस्य चैश्यस्य श्रियमुद्वहन् ॥१॥ चन्द्रादित्योत्तमोधोतरत्नालङ्कृत विग्रहः । मनोहरेण रूपेण जुष्टो नेत्रसमुत्सवः ॥१०॥ बिभ्राणो विमलं हारं तरङ्गितमहाप्रभम् । प्रवामिव सेतोदं श्रीमानिषधभूधरः ॥ ११ ॥ हारकुण्डल केयूरप्रभृत्युत्तमभूषणैः । समन्तादावृतो देवैर्नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः ॥१२॥
अथानन्तर लक्ष्मणके आठ वीर कुमारों और हनूमान्की दीक्षाका समाचार सुन श्रीराम यह कहते हुए हँसे कि अरे ! इन लोगोंने क्या भोग भोगा ? ॥ १ ॥ जो दूरदर्शी मनुष्य, विद्यमान भोगको छोड़कर दीक्षा लेते हैं जान पड़ता है कि वे ग्रहोंसे आक्रान्त हैं अथवा वायुके वशीभूत हैं । भावार्थ -- या तो उन्हें भूत लगे हैं या वे वायुकी बीमारीसे पीड़ित हैं ||२|| जान पड़ता है कि ऐसे लोगोंकी ओषधि करने वाले कुशल वैद्य नहीं हैं इसीलिए तो वे मनोहर भोगोंको छोड़ बैठते हैं ||३|| इस प्रकार भोगोंके महासंगसे होने वाले सुख रूपी सागर में निमग्न तथा चारित्र - मोहनीय कर्मके वशीभूत श्रीरामचन्द्रकी बुद्धि जड़ रूप हो गई थी || ४ || भोगने में आये हुए अल्प सुखसे उपलक्षित संसारी प्राणियोंको यदि किसीके लोकोत्तर सुखका वर्णन सुनने में भी आता है तो प्रायः वह आश्चर्य उत्पन्न करता है ||५|| इस प्रकार महाभोगों में निमग्न तथा प्रेमसे बँधे हुए उन राम-लक्ष्मणका काल चारित्र रूपी धर्मसे निरपेक्ष होता हुआ व्यतीत हो रहा था ॥ ६ ॥
अन्तर किसी समय महा कान्तिसे युक्त, उत्कृष्ट ऋद्धिसे सहित, धैर्य और गाम्भीर्य से उपलक्षित सौधर्मेन्द्र देवोंकी सभा में आकर विराजमान हुआ ||७|| नाना अलंकारोंको धारण करने वाले समस्त मन्त्री उसकी सेवा कर रहे थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो अन्य छोटे पर्वतों से परिवृत सुमेरु महापर्वत ही हो ||८|| कान्तिसे आच्छादित सिंहासनपर बैठा हुआ वह सौधर्मेन्द्र सुमेरुके शिखरपर विराजमान जिनेन्द्रकी शोभाको धारण कर रहा था ||६|| चन्द्रमा और सूर्यके समान उत्तम प्रकाश वाले रत्नोंसे उसका शरीर अलंकृत था । वह मनोहर रूप सहित तथा नेत्रों को आनन्द देने वाला था || १८ || जिसकी बहुतभारी कान्ति फैल रही थी ऐसे निर्मल हारको धारण करता हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो सीतोदा नदीके प्रवाहको धारण करता हुआ निषध पर्वत ही हो ||११|| हार, कुण्डल, केयूर आदि उत्तम आभूषणों को धारण करने
१. वैद्यवातिकाः म० । २. कपुस्तके एष श्लोको नास्ति । ३. -मीयुषः म० । ४. संसृतिः । ५. प्रेमबन्धयोः म० । ६. महाप्रभः म० ।
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