Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 380
________________ पद्मपुराणे यतिराहोत्तमं युक्तमेवमस्तु सुमानसः । जगनिःसारमालोक्य क्रियता स्वहितं परम् ॥२८॥ भशाश्वतेन देहेन विहत्तु'शाश्वतं पदम् । परमं तव कल्याणी मतिरेषा समुद्गता ॥२६॥ इत्यनुज्ञा मुनेः प्राप्य संवेगरभसान्वितः । कृतप्रणमनस्तुष्टः पर्यङ्कासनमाश्रितः ॥३०॥ मुकटं कुण्डले हारमवशिष्टं विभूषणम् । समुत्ससर्ज वस्त्रं च मानसं च परिग्रहम् ॥३१॥ दयितानिगडं भित्त्वा दग्भया जालं ममत्वजम् । छित्त्वा स्नेहमयं पाशं त्यक्त्वा सौख्यं विषोपमम् ॥३२॥ वैराग्यदीपशिखया मोहध्वान्तं निरस्य च । कमप्यपकरं दृष्ट्वा शरीरमतिभङ्गुरम् ॥३३॥ स्वयं ससकुमाराभिर्जितपत्राभिरुत्तमम् । उत्तमाङ्गरुहो नीरवा करशाखाभिरुत्तमः ॥३४॥ निःशेषसङ्गनिमुक्तो मुक्तिलचमी समाश्रितः । महाव्रतधरः श्रीमान्छ्रीशैलः शुशुभेतराम् ॥३५॥ निवेदप्रभुरागाभ्यां प्रेरितानि महात्मनाम् । शतानि सप्त साम्राणि पञ्चाशद्भिः सुचेतसाम् ॥३६॥ विद्याधरनरेन्द्राणां महासंवेगवर्तिनाम् । स्वपुत्रेषु पदं दत्त्वा प्रतिपन्नानि योगिताम् ॥३७॥ विद्यद्गस्यादिनामानः परमप्रीतमानसाः । मुक्तसर्वकलकास्ते श्रिताः श्रीशैलविभ्रमम् ॥३८॥ कृत्वा परमकारुण्यं विप्रलापं महाशुचम् । वियोगानलसन्तप्ताः परं निवेदमागताः ॥३॥ प्रथितां बन्धुमत्याख्यामुपगम्य महत्तराम् । प्रयुज्य विनयं भक्त्या विधाय महमुत्तमम् ॥४०॥ श्रीमत्यो भवतो भीता धीमत्यो नृपयोषितः । महद्भूषणनिमुक्ताः शीलभूषाः प्रवव्रजुः ।।४१॥ बभूव विभवस्तासां तदा जीर्णतृणोपमः । महामहाजनः प्रायो रतिवद्विरतो भृशम् ॥४२॥ चाहता हूँ अतः मुझपर प्रसन्नता कीजिए ।।२६-२७॥ यह सुन उत्तम हृदयके धारक मुनिराजने कहा कि बहुत अच्छा, ऐसा ही हो, जगत्को निःसार देख अपना परम कल्याण करो ॥२८।। विनश्वर शरीरसे अविनाशी पद प्राप्त करनेके लिए जो तुम्हारी कल्याणरूपिणी बुद्धि उत्पन्न हुई है यह बहुत उत्तम बात है ॥२६॥ इस प्रकार मुनिकी आज्ञा पाकर जो वैराग्यके वेगसे सहित था, जिसने प्रणाम किया था, और जो संतुष्ट होकर पद्मासनसे विराजमान था ऐसे हनूमान्ने मुकुट, कुण्डल, हार तथा अन्य आभूषण, वन और मानसिक परिग्रहको तत्काल छोड़ दिया ॥३०-३१।। उसने स्त्री रूपी बेड़ी तोड़ डाली थी, ममतासे उत्पन्न जालको जला दिया था, स्नेह रूपी पाश छेद डाली थी, सुखको विषके समान छोड़ दिया था, अत्यन्त भङ्गुर शरीरको अद्भुत अपकारी देख वैराग्य रूपी दीपककी शिखासे मोहरूपी अन्धकारको नष्ट कर दिया था, और कमलको जीतनेवाली अपनी सुकुमार अङ्गुलियोंसे शिर के बाल नोच डाले थे। इस प्रकार समस्त परिग्रहसे रहित, मुक्ति रूपी लक्ष्मीके सेवक, महाव्रतधारी, और वैराग्य लक्ष्मीसे युक्त उत्तम हनूमान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥३२-३४॥ उस समय वैराग्य और स्वामिभक्तिसे प्रेरित, उदारात्मा, शुद्ध हृदय और महासंवेगमें वर्तमान सातसौ पचास विद्याधर राजाओंने अपने-अपने पुत्रोंके लिए राज्य देकर मुनिपद धारण किया ॥३५-६७|| इस प्रकार जिनके चित्त अत्यन्त प्रसन्न थे, तथा जिनके सब कलंक छूट गये थे ऐसे वे विद्युद्गति आदि नामको धारण करनेवाले मुनि हनूमान्की शोभाको प्राप्त थे अर्थात उन्हींके समान शोभायमान थे ॥३८॥ ___ तदनन्तर जो वियोगरूपी अग्निसे संतप्त थीं, महाशोकदायी अत्यन्त करुण विलाप कर परम निर्वेद-वैराग्यको प्राप्त हुई थीं, श्रीमती थीं, संसारसे भयभीत थीं, धीमती थीं, महाआभूषणोंसे रहित थीं, और शीलरूपी आभूषणको धारण करनेवाली थीं ऐसी राजस्त्रियोंने बन्धुमती नामकी प्रसिद्ध आर्यिकाके पास जाकर तथा भक्ति पूर्वक नमस्कार और उत्तम पूजा कर दीक्षा धारण कर ली ॥३६-४१॥ उस समय उन सबके लिए वैभव जीर्णतृणके समान जान पड़ने लगा १. परम् म०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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