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चतुर्दशोत्तरशतं पर्व चन्द्रनक्षत्रसादृश्यं चारु मानुषगोचरम् । उक्तं यतोऽन्यथाकल्पज्योतिषामन्तरं महत् ॥१३॥ महाप्रभावसम्पनो दिशो दश निजौजसा । भासयन्परमोदात्तस्तरुजें नेश्वरो यथा ॥१४॥ अशक्यवर्णनो भूरि संवत्सरशतैरपि । भप्यशेषैर्जनैर्जिह्वासहस्ररपि सर्वदा ॥१५॥ लोकपालप्रधानानां सुराणां चारुचेतसाम् । यथाऽऽसनं निषण्णानां पुराणमिदमभ्यधात् ॥१६॥ येनेषोऽस्यन्तदुःसाध्यः संसारः परमासुरः। निहतो ज्ञानचक्रण महारिः सुखसूदनः ॥१७॥ अर्हन्तं तं परं भक्त्या भावपुष्पैरनन्तरम् । नाथमर्चयताऽशेषदोषकक्षविभावसुम् ॥१८॥ कषायोऽग्रतरजाम्यात् कामग्राहसमाकुलात् । यः संसाराणवाद् भव्यान् समुत्तारयितुं क्षमः ॥१६॥ यस्य प्रजातमात्रस्य मन्दरे त्रिदशेश्वराः । अभिषेक निषेवन्ते परं क्षीरोदवारिणा ॥२०॥ अर्चयन्ति च भक्त्यान्यास्तदेकानानुवर्तिनः । पुरुषार्थाsहितस्वान्ताः परिवर्गसमन्विताः ॥२१॥ विन्ध्यकैलासवक्षोजां पारावारोमिमेखलाम् । यावत्तस्थौ महीं त्यक्त्वा गृहीत्वा सिद्धियोषिताम् ॥२२॥ महामोहतमश्छन्नं धर्महीनमपार्थिवम् । येनेदमेत्य नाकापादालोक प्रापितं जगत् ॥२३॥ अत्यन्ताद्भुतवीर्येण येनाष्टौ कर्मशत्रवः । तपिताः क्षणमात्रेण हरिणेवेह दन्तिनः ॥२४॥
वाले देव उस सौधर्मेन्द्रको सब ओरसे घेरे हुए थे इसलिए वह नक्षत्रोंसे आवृत चन्द्रमाके समान जान पड़ता था ॥१२॥ इन्द्र तथा देवोंके लिए जो चन्द्रमा और नक्षत्रोंका सादृश्य कहा है वह मनुष्यको अपेक्षा है क्योंकि स्वर्गके देव और ज्योतिषी देवोंमें बढ़ा अन्तर है। भावार्थ-मनुष्यलोकमें चन्द्रमा और नक्षत्र उज्ज्वल दिखते हैं इसलिए इन्द्र तथा देवोंको उनका दृष्टान्त दिया है यथार्थमें चन्द्रमा नक्षत्र रूप ज्योतिषी देवोंसे स्वर्गवासी देवोंकी ज्योति अधिक है और देवोंकी ज्योतिसे इन्द्रोंकी ज्योति अधिक है।।१३।। वह इन्द्र स्वयं महाप्रभावसे सम्पन्न था और अपने तेजसे दशों दिशाओंको प्रकाशमान कर रहा था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र सम्बन्धी अत्यन्त ऊँचा अशोक वृक्ष ही हो ॥१४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यदि सब लोग मिलकर हजारों जिह्वाओंके द्वारा निरन्तर उसका वर्णन करें तो सैकड़ों वर्षों में भी वर्णन पूरा नहीं हो सकता ॥१५॥
तदनन्तर उस इन्द्रने, यथायोग्य आसनोंपर बैठे लोकपाल आदि शुद्ध हृदयके धारक देवोंके समक्ष इस पुराणका वर्णन किया ।।१६।। पुराणका वर्णन करते हुए उसने कहा कि अहो देवो ! जिन्होंने अत्यन्त दुःसाध्य, सुखको नष्ट करनेवाले तथा महाशत्र स्वरूप इस संसाररूपी महाअसुरको ज्ञानरूपी चक्रके द्वारा नष्ट कर दिया है और जो समस्त दोष रूपी अटवीको जलानेके लिए अग्निके समान हैं उन परमोत्कृष्ट अर्हन्त भगवान्की तुम निरन्तर भक्तिपूर्वक भाव रूपी फूलोंसे अर्चा करो ॥१७-१८॥ कषायरूपी उन्नत तरङ्गोंसे युक्त तथा कामरूपी मगर-मच्छोंसे व्याप्त संसार रूपी सागरसे जो भव्य जीवोंको पार लगाने में समर्थ हैं, उत्पन्न होते ही जिनका इन्द्र लोग सुमेरु पर्वतपर क्षीरसागरके जलसे उत्कृष्ट अभिषेक करते हैं । तथा भक्तिसे युक्त, मोक्ष पुरुषार्थमें चित्तको लगानेवाले एवं अपने-अपने परिजनोंसे सहित इन्द्र लोग तदेकाम चित्त होकर जिनकी पूजा करते हैं ॥१६-२१॥ विन्ध्य और कैलाश पर्वत जिसके स्तन हैं तथा समुद्र की लहरें जिसकी मेखला हैं ऐसी पृथिवी रूपी स्त्रीका त्यागकर तथा मुक्ति रूपी स्त्रीको लेकर जो विद्यमान हैं ॥२२॥ महामोह रूपी अन्धकारसे आच्छादित, धर्महीन तथा स्वामी हीन इस संसारको जिन्होंने स्वर्गके अग्रभागसे आकर उत्तम प्रकाश प्राप्त कराया था ॥२३।। और जिस प्रकार सिंह हाथियोंको नष्ट कर देता है उसी प्रकार अत्यन्त अद्भुत पराक्रमको धारण करने वाले जिन्होंने आठ कर्म रूपी शत्रुओंको क्षणभर में
१. कल्प-म०। Jain Education Interational
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