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चतुर्दशोत्तरशतं पर्व
हा धिक्कुशास्त्रनिव हैस्तैश्च वाक्पटुभिः खलः । पापैर्मानिभिरुन्मार्गे पातितः पतितः कथम् ॥४१॥ एवं मानुष्यमासाद्य जैनेन्द्रमतमुत्तमम् । दुर्विज्ञेयमधन्यानां जन्तूनां दुःखभागिनाम् ॥४२॥ महर्धिकस्य देवस्य च्युतस्य स्वर्गतो भवेत् । आहती दुर्लभा बोधिदेहिनोऽन्यस्य किं पुनः ।।४३॥ धन्यः सोऽनुगृहीतश्च मानुषत्वे भवोत्तमे । यः करोत्यात्मनः श्रेयो बोधिमासाथ नैष्ठिकीम् ॥४॥ तवारमगतं प्राह सुरश्रेष्ठो विभावसुः । कदा नु खलु मानुष्यं प्राप्स्यामि स्थितिसंक्षये ॥४५॥ विषयारिं परित्यज्य स्थापयित्वा वशे मनः । नीत्वा कर्म प्रयास्यामि तपसा गतिमाहतीम् ॥४६॥ तत्रैको विबुधः प्राह स्वर्गस्थस्येदशी मतिः । अस्माकमपि सर्वेषां नृत्वं प्राप्य विमुह्यति ॥४७॥ यदि प्रत्ययसे नैतत् ब्रह्मलोकात् परिच्युतम् । मानुष्यैश्वर्यसंयुक्तं पद्माभं किं न पश्यसि ॥४८॥ अत्रोवाच महातेजाः शचीपतिरसौ स्वयम् । सर्वेषां बन्धनानां तु स्नेहबन्धी महादः ॥४॥ हस्तपादाङ्गबद्धस्य मोक्षः स्यादसुधारिणः । स्नेहबन्धनबद्धम्य कुतो मुक्तिर्विधीयते ॥५०॥ योजनानां सहस्राणि निगडैः पूरितो व्रजेत् । शक्तो नाङ्गुलमप्येकं बद्धः स्नेहेन मानवः ॥५१॥ अस्य लाङ्गलिनो नित्यमनुरक्तो गदायुधः । अतृप्तो दर्शने कृत्यं जीवितेनाऽपि वाञ्छति ॥५२॥ निमेषमपि नो यस्य विकलं हलिनो मनः । स तं लचमीधरं त्यक्तुं शक्नोति सुकृतं कथम् ॥५३॥
समान सुन्दर जिन-शासनमें पहुँचकर भी मुझ मन्दबुद्धिने आत्माका हित नहीं किया अतः मुझे धिक्कार है ॥४०॥ हाय हाय धिक्कार है कि मैं उन मिथ्या शास्त्रों के समूह तथा वचन-रचनामें चतुर, पापी, मानी तथा स्वयं पतित दुष्ट मनुष्योंके द्वारा कुमार्गमें कैसे गिरा दिया गया ? ॥४१॥ इस प्रकार मनुष्य-भव पाकर भी अधन्य तथा निरन्तर दुःख उठानेवाले मनुष्योंके लिए 'यह उत्तम जिन-शासन द य ही बना रहता है॥४२॥ स्वर्गसेच्यत हए महर्द्धिक देवके लिए भी जिनेन्द्र प्रतिपादित रत्नत्रयका पाना दुर्लभ है फिर अन्य प्राणीकी तो बात ही क्या है ? ॥४३॥ सब पर्यायोंमें उत्तम मनुष्य-पर्यायमें निष्ठापूर्ण रत्नत्रय पाकर जो आत्माका कल्याण करता है वही धन्य है तथा वही अनुगृहीत-उपकृत है ॥४४॥
____ उसी सभामें बैठा हुआ इन्द्ररूपी सूर्य, मन-ही-मन कहता है कि यहाँकी आयुपूर्ण होनेपर । मैं मनुष्य-पर्यायको कब प्राप्त करूँगा ? ॥४५॥ कब विषयरूपी शत्रुको छोड़कर मनको अपने वश कर, तथा कर्मको नष्टकर तपके द्वारा मैं जिनेन्द्र सम्बन्धी गति अर्थात् मोक्ष प्राप्त करूँगा ॥४६।। यह सुन देवोंमें से एक देव बोला कि जब तक यह जीव स्वर्गमें रहता है तभी तक उसके ऐसा विचार होता है, जब हम सब लोग भी मनुष्य-पर्यायको पा लेते हैं तब यह सब विचार भूल जाता है ॥४७॥ यदि इस बातका विश्वास नहीं है तो ब्रह्मलोकसे च्युत तथा मनुष्योंके से युक्त राम-बलभद्रको जाकर क्यों नहीं देख लेते ? ॥४८॥
इसके उत्तरमें महातेजस्वी इन्द्रने स्वयं कहा कि सब बन्धनोंमें स्नेहका बन्धन अत्यन्त दृढ़ है ॥४६॥ जो हाथ-पैर आदि अवयवोंसे बँधा है ऐसे प्राणीको मोक्ष हो सकता है परन्तु स्नेहरूपी बन्धनसे बँधे प्राणीको मोक्ष कैसे हो सकता है ? ॥५०।। बेड़ियोंसे बँधा मनुष्य हजारों योजन भी जा सकता है परन्तु स्नेहसे बँधा मनुष्य एक अङ्गुल भी जानेके लिए समर्थ नहीं है ॥५१।। लक्ष्मण, राममें सदा अनुरक्त रहता है वह इसके दर्शन करते-करते कभी तृप्त ही नहीं होता और अपने प्राण देकर भी उसका कार्य करना चाहता है ॥५२॥ पलभरके लिए भी जिसके दूर होनेपर रामका मन बेचैन हो उठता है वह उस उपकारी लक्ष्मणको छोड़नेके लिए
१. सुष्ठु करोतीति सुकृत् तम् ।
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