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पद्मपुराणे
जिनेन्द्रो भगवानर्हन् स्वयम्भूः शम्भुरूर्जितः । स्वयम्प्रभो महादेवः स्थाणुः कालञ्जरः शिवः ॥ २५॥ महा हिरण्यगर्भश्च देवदेवो महेश्वरः । सद्धमंचक्रवर्ती च विभुस्तीर्थंकरः कृती ॥२६॥ संसारसूदनः सूरिर्ज्ञानचक्षुर्भवान्तकः । एवमादिर्यथार्थाख्यो गीयते यो मनीषिभिः ॥२७॥ 'निगूढ प्रकटस्वार्थैरभिधानः सुनिर्मलैः । स्तूयते स मनुष्येन्द्रः सुरेन्द्रेश्च सुभक्तिभिः ॥ २८ ॥ प्रसादाद्यस्य नाथस्य कर्ममुक्ताः शरीरिणः । त्रैलोक्याग्रेऽवतिष्ठन्ते यथावत्प्रकृतिस्थिताः ॥२१॥ इत्यादि यस्य माहात्म्यं स्मृतमप्यघनाशनम् । पुराणं परमं दिव्यं सम्मदोद्भवकारणम् ॥३०॥ महाकल्याणमूलस्य स्वार्थकांक्षणतत्पराः । तस्य देवाधिदेवस्य भक्ता भवत सन्ततम् ॥३१॥ अनादिनिधने जन्तुः प्रेर्यमाणः स्वकर्मभिः । दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं धिक् कश्चिदपि मुह्यति ॥ ३२ ॥ चतुर्गतिमहावर्ते महासंसारमण्डले । पुनर्बोधिः कुतस्तेषां ये द्विषन्त्यदक्षरम् ॥ ३३ ॥ कृच्छ्रान्मानुषमासाद्य यः स्यादूबोधिविवर्जितः । पुनर्भ्राम्यत्यपुण्यात्मा सः स्वयंरथचक्रवत् ॥ ३४ ॥ अहो धिङ्मानुषे लोके गतानुगतिकैर्जनैः । जिनेन्द्रो नादृतः कैश्वित्संसारारिनिषूदनः ||३५|| मिथ्यातपः समाचर्य भूस्खा देवो लवर्धिकः । युत्वा मनुष्यतां प्राप्य कष्टं दुह्यति जीवकः ॥ ३६ ॥ कुधर्माशय सोऽसौ महामोहवशीकृतः । न जिनेन्द्र महेन्द्राणामपीन्द्रं प्रतिपद्यते ॥३७॥ विषयामि लुब्धात्मा जन्तुर्मनुजतां गतः । मुह्यते मोहनीयेन कर्मणा कष्टमुत्तमम् ॥ ३८ ॥ अपि दुईष्टयोगाद्यैः स्वर्गं प्राप्य कुतापसः । स्वहीनतां परिज्ञाय दद्यते चिन्तयाऽतुरः ॥ ३६ ॥ रत्नद्वीपोपमे रम्ये तदाधिमन्दबुद्धिना । मयाच्छासने किं नु श्रेयो न कृतमात्मनः ॥४०॥
नष्ट कर दिया है ||२४|| जिनेन्द्र भगवान्, अर्हन्त, स्वयंभू, शम्भु, ऊर्जित, स्वयंप्रभ, महादेव, स्थाणु, कालंजर, शिव, महाहिरण्यगर्भ, देवदेव, महेश्वर, सद्धर्म चक्रवर्ती, विभु, तीर्थंकर, कृति, संसारसूदन, सूरि, ज्ञानचक्षु और भवान्तक इत्यादि यथार्थ नामोंसे विद्वज्जन जिनकी स्तुति करते हैं ।।२५-२७।। उत्तम भक्तिसेयुक्त नरेन्द्र और देवेन्द्र गूढ़ तथा अगूढ़ अर्थको धारण करने वाले अत्यन्त निर्मल शब्दों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥ जिनके प्रसादसे जीव कर्मरहित हो तीन लोक अग्रभागमें स्वस्वभाव में स्थित रहते हुए विद्यमान रहते हैं ||२६|| जिनका इस प्रकारका माहात्म्य स्मृति में आनेपर भी पापका नाश करनेवाला है और जिनका परम दिव्य पुराण हर्षकी उत्पत्तिका कारण है ||३०|| हे आत्मकल्याणके इच्छुक देवजनो ! उन महाकल्याणके मूल देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान्के तुम सदा भक्त होओ ||३१|| इस अनादि-निधन संसार में अपने कर्मो से प्रेरित हुआ कोई विरला मनुष्य ही दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त करता है परन्तु धिक्कार है कि वह भी मोहमें फँस जाता है ||३२|| जो 'अन्त' इस अक्षरसे द्वेष करते हैं उन्हें चतुर्गति रूप बड़ी-बड़ी आवतसे सहित इस संसाररूपी महासागर में रत्नत्रयकी प्राप्ति पुन: कैसे हो सकती है ? ||३३|| जो बड़ी कठिनाई से मनुष्यभव पाकर रत्नत्रय से वर्जित रहता है, वह पापी रथके चक्र के समान स्वयं भ्रमण करता रहता है ||३४|| अहो धिक्कार है कि इस मनुष्य-लोक में कितने ही गतानुगतिक लोगों में संसार - शत्रुको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्का आदर नहीं किया ||३५|| यह जीव मिथ्या तपकर अल्प ऋद्धिका धारक देव होता है और वहाँ से च्युत होकर मनुष्य पर्याय पाता है फिर भी खेद है कि द्रोह करता है ||३६|| महामोहके वशीभूत हुआ यह जीव, मिथ्याधर्म में आसक्त हो बड़े-बड़े इन्द्रोंके इन्द्र जो जिनेन्द्र भगवान् हैं उन्हें प्राप्त नहीं होता ||३७ ॥ विषय रूपी मांसमें जिसकी आत्मा लुभा रही है ऐसा यह प्राणी मनुष्य पर्याय कर्मको पाकर मोहनीयके द्वारा मोहित हो रहा है, यह बड़े कष्टकी बात है || ३८ ॥ मिथ्यातप करनेवाला प्राणी दुर्दैवके योग से यदि स्वर्ग भी प्राप्त कर लेता है तो वहाँ अपनी हीनताका अनुभव करता हुआ चिन्तातुर हो जलता रहता है ||३६|| वहाँ वह सोचता है कि अहो ! रत्नद्वीपके
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१. निगूढः प्रकटः म० । २. अनादिनिधनो म० । ३. बलर्द्धिकः म० । ४. प्रतिपद्यन्ते म० ।
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