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पञ्चदशोत्तरशतं पर्व
अथाऽऽसनं विमुञ्चन्तं शक्रं नत्वा सुरासुराः । यथायथं ययुश्चित्रं वहन्तो भावमुस्कटम् ॥१॥ कुतूहलतया द्वौ तु विबुधौ कृतनिश्चयो । पद्मनारायणस्नेहमीहमानौ परीक्षितुम् ।।२।। क्रीडेकरसिकारमानावन्योन्यप्रेमसङ्गतौ । पश्यावः प्रीतिमनयोरित्यागातां प्रधारणाम् ॥३॥ दिवसं विश्वसित्येकमप्यस्यादर्शनं न यः । मरणे पूर्वजस्यासौ हरिः किन्न विचेष्टते ॥४॥ शोकविह्वलितस्यास्य वीक्षमाणौ विचेष्टितम् । परिहासं क्षणं कुर्वो गच्छावः कोशलां पुरीम् ।।५।। शोकाकुलं मुखं विष्णोर्जायते कीदृशं तु तत् । कस्मै कुप्यति याति क्व करोति किमु भाषणम् ॥६॥ कृत्वा प्रधारणामेतां रत्नचूलो दुरीहितः । नामतो मृगचूलश्च विनीता नगरी गतौ ॥७॥ 'तत्याकुरता पद्मभवने क्रन्दितध्वनिम् । समस्तान्तःपुरस्त्रीणां दिव्यमायासमुद्भवम् ॥८॥ प्रतीहारसुहृन्मन्त्रिपुरोहितपुरोगमाः । अधोमुखा ययुर्विष्णुं जगुश्च बलपञ्चताम् ॥३॥ मृतो राघव इत्येतद्वाक्यं श्रुत्वा गदायुधः । मन्दप्रभञ्जनाधूतनीलोत्पलनिभेक्षणः ॥१०॥ हा किमिदं समुद्भूतमित्यर्द्धकृतजल्पनः । मनोवितानतां प्राप्तः सहसाऽश्रण्यमुञ्चत ॥११॥ ताडितोऽशनिनेवाऽसौ काञ्चनस्तम्भसंश्रितः । सिंहासनगतः पुस्तकमन्यस्त इव स्थितः ॥१२॥ अनिमीलितनेत्रोऽसौ तथाऽवस्थितविग्रहः । दधार जीवतो रूपं वापि प्रहितचेतसः ॥१३॥ वीच्य निर्गतजीवं तं भ्रातृमृत्यनलाहतम् । त्रिदशौ व्याकुलीभूतौ जीवितुं दातुमक्षमौ ॥१४॥
अथानन्तर आसनको छोड़ते हुए इन्द्रको नमस्कारकर नाना प्रकारके उत्कट भावको धारण करनेवाले सुर और असुर यथायोग्य स्थानोंपर गये ॥१॥ उनमेंसे राम और लक्ष्मणके स्नेहकी परीक्षा करनेके लिए चेष्टा करनेवाले, क्रीड़ाके रसिक तथा पारस्परिक प्रेमसे सहित दो देवोंने कुतूहलवश यह निश्चय किया, यह सलाह बाँधी कि चलो इन दोनोंकी प्रोति देखें ॥२-३॥ जो उनके एक दिनके भी अदर्शनको सहन नहीं कर पाता है ऐसा नारायण अपने अग्रजके मरणका समाचार पाकर देखें क्या चेष्टा करता है ? शोकसे विह्वल नारायणकी चेष्टा देखते हुए क्षणभरके लिए परिहास करें। चलो, अयोध्यापुरी चलें और देखें कि विष्णुका शोकाकुल मुख कैसा होता है ? वह किसके प्रति क्रोध करता है और क्या कहता है ? ऐसी सलाहकर रत्नचूल और मृगचूल नामके दो दुराचारी देव अयोध्याकी ओर चले ।।४-ा वहाँ जाकर उन्होंने रामके भवनमें दिव्य मायासे अन्तःपुरकी समस्त स्त्रियोंके रुदनका शब्द कराया तथा ऐसी विक्रिया की कि द्वारपाल, मित्र, मन्त्री, पुरोहित तथा आगे चलनेवाले अन्य पुरुष नीचा मुख किये लक्ष्मणके पास गये और रामकी मृत्युका सम्राचार कहने लगे। उन्होंने कहा कि 'हे नाथ! रामकी मृत्यु हई है। यह सुनते ही लक्ष्मणके नेत्र मन्द-मन्द वायसे कम्पित नीलोत्पलके वनसमान चञ्चल हो उठे ।।८-१०॥ 'हाय यह क्या हुआ ?' वे इस शब्दका आधा उच्चारण हो कर पाये थे कि उनका मन शून्य हो गया और वे अश्रु छोड़ने लगे ॥११॥ वनसे ताड़ित हुए के समान वे स्वर्णके खम्भेसे टिक गये और सिंहासनपर बैठे-बैठे ही मिट्टीके पुतलेकी तरह निश्चेष्ट हो गये ॥१२॥ उनके नेत्र यद्यपि बन्द नहीं हुए थे तथापि उनका शरीर ज्योंका त्यों निश्चेष्ट हो गया। वे उस समय उस जीवित मनुष्यका रूप धारणकर रहे थे जिसका कि. चित्त कहीं अन्यत्र लगा हुआ है ।।१३॥ भाईकी मृत्यु रूपी अग्निसे ताड़ित लक्ष्मणको निर्जीव देख दोनों देव बहुत व्याकुल
१. तत्रत्यं कुरुतां म०, ज० । २. राममृत्युम् । ३. सहसाधनमुश्चत म०। ४. मृत्स्वनलाहतम् म०। ४७-३
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