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त्रयोदशोत्तरशतं पर्व
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व्रतगुप्तिसमित्युच्चैः शैलः श्रीशैलपुङ्गवः । महातपोधनो धीमान् गुणशीलविभूषणः ॥४३॥
आर्याच्छन्दः धरणीधरैः प्रहृष्टैरुपगीतो वन्दितोऽप्सरोभिश्च । अमलं समयविधानं सर्वज्ञोक्तं समाचर्य ॥४४॥ निर्दग्धमोहनिचयो जैनेन्द्रं प्राप्य पुष्कलं ज्ञानविधिम् ।
निर्वाण गिरावसिधच्छ्रीशैलः श्रमणसत्तमः पुरुषरविः ॥४५॥ इत्याचे । श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मचरिते हनूमन्निर्वाणाभिधानं नाम त्रयोदशोत्तरशतं पर्व ॥११३॥
था सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम पुरुष राग करने वालोंसे अत्यन्त विरक्त रहते ही हैं ॥४२।। इस प्रकार जो व्रत, गुप्ति और समितिके मानो उच्च पर्वत थे ऐसे श्री हनूमान् मुनि महातप रूपी धनके धारक, धीमान् और गुण तथा शील रूपी आभूषणोंसे सहित थे ।।४३।। हर्षसे भरे बड़े-बड़े राजा जिनकी स्तुति करते थे, अप्सराएँ जिन्हें नमस्कार करती थीं, जिन्होंने मोहकी राशि भस्म कर दी थी, जो मुनियोंमें उत्तम थे, तथा पुरुषों में सूर्यके समान थे ऐसे श्रीशैल महामुनिने सर्वज्ञ प्रतिपादित निर्मल आचारका पालन कर तथा जिनेन्द्र सम्बन्धी पूर्णज्ञान प्राप्तकर निर्वाण गिरिसे सिद्ध पद प्राप्त किया ॥४४-४५||
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्री रविषेणचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें हनूमान्के ।
निर्वाणका वर्णन करनेवाला एकसौ तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥११॥
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