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त्रयोदशोत्तरशतं पर्व
अथ रात्रावतीतायां तपनीयनिभो रविः । जगदुद्योतयामास दीपया साधुर्यथा गिरा ॥१॥ नपत्रगणमुत्सायं बोधिता नलिनाकराः । रविणा जिननाथेन भव्यानां निचया इव ॥२॥ आपृच्छत 'सखीन् वोतिर्महासंवेगसङ्गतः । निःस्पृहारमा यथापूर्व भरतोऽयन् तपोवनम् ॥३॥ ततः कृपणलोलामाः परमोद्वेगवाहिनः । नाथं विज्ञापयन्ति स्म सचिवाः प्रेमनिर्भराः ॥४॥ अनाथान् देव नो कत्तं मस्मानहसि सद्गुण । प्रभो प्रसीद भक्तेषु क्रियतामनुपालनम् ॥५॥ जगाद मारुतियूयं परमप्यनुवर्तिनः । अनर्थबान्धवा एव मम नो हितहेतवः ॥६॥ उत्तरन्तं भवाम्भोधि तत्रैव प्रतिपन्ति ये। हितास्ते कथमच्यन्ते वैरिणः परमार्थतः ॥७॥ माता पिता सुहृद्माता न तदाऽगात्सहायताम् । यदा नरकवासेषु प्राप्तं दुःखमनुत्तमम् ॥८॥ मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य बोधि च जिनशासने । प्रमादो नोचितः क निमेषमपि धीमतः ॥३॥ "समुष्यापि परं प्रीतैर्भवद्भिः सह भोगवत् । अवश्यंभावुकस्तीवो विरहः कर्मनिर्मितः ॥१०॥ देवासुरमनुष्येन्द्रा स्वकर्मवशवर्तिनः । कालदावानलालीढाः के वा न प्रलयं गताः ॥११॥ पत्योपमसहस्राणि त्रिदिवेऽनेकशो मया। भुक्ता भोगा न वाऽतृप्यं वद्विः शुधकेन्धनैरिव ॥१२॥ गताऽऽगमविधेर्दातृ मत्तोऽपि सुमहाबलम् । अपरं नाम कर्माऽस्ति जाता तनुममाऽक्षमा ॥१३॥
अथानन्तर रात्रि व्यतीत होनेपर स्वर्णके समान सूर्यने दीप्तिसे जगत्को उस तरह प्रकाशमान कर दिया जिस तरह कि साधु वाणीके द्वारा प्रकाशमान करता है ॥१॥ सूर्यने नक्षत्रसमूहको हटाकर कमलोंके समूहको उस तरह विकसित कर दिया जिस तरह कि जिनेन्द्रदेव भव्योंके समूहको विकसित कर देता है ॥२॥ जिस प्रकार पहले तपोवनको जाते हुए भरतने अपने मित्रजनोंसे पूछा था उसी प्रकार महासंवेगसे युक्त, तथा निःस्पृह चित्त हनूमान्ने मित्रजनोंसे पूछा ॥३॥ तदनन्तर जिनके नेत्र अत्यन्त दीन तथा चञ्चल थे, जो परम उद्वेगको धारण कर रहे थे एवं जो प्रेमसे भरे हुए थे ऐसे मन्त्रियोंने स्वामीसे प्रार्थना की कि हे देव ! आप हम लोगोंको अनाथ करनेके योग्य नहीं हैं। हे उत्तम गुणोंके धारक प्रभो! भक्तोंपर प्रसन्न हूजिए और उनका पालन कीजिए ॥४-५॥ इसके उत्तरमें हनूमान्ने कहा कि तुम लोग परम अनुयायी होकर भी हमारे अनर्थकारी बान्धव हो हितकारी नहीं ॥६॥ जो संसारसमुद्रसे पार होते हुए मनुष्यको उसीमें गिरा देते हैं वे हितकारी कैसे कहे जा सकते हैं ? वे तो यथार्थमें वैरी ही हैं ॥७॥ जब मैंने नरकवासमें बहुत भारी दुःख पाया था तब माता-पिता, मित्र, भाई-कोई भी सहायताको प्राप्त नहीं हुए थे-किसीने सहायता नहीं की थी॥८॥ दुर्लभ मनुष्य-पर्याय और जिन-शासनका ज्ञान प्राप्तकर बुद्धिमान् मनुष्यको निमेष मात्र भी प्रमाद करना उचित नहीं है ॥६॥ परम प्रीतिसे युक्त आप लोगोंके साथ रहकर जिस प्रकार भोगकी प्राप्ति हुई है उसी प्रकार अब कर्म-निर्मित तीव्र विरह भी अवश्यंभावी है ॥१०॥ अपने-अपने कर्मके आधीन रहनेवाले ऐसे कौन देवेन्द्र असुरेन्द्र अथवा मनुष्येन्द्र हैं जो काल रूपी दावानळसे व्याप्त हो विनाशको प्राप्त न हुए हों ? ॥११॥ मैंने स्वर्गमें अनेकों बार हजारों पल्य तक भोग भोगे हैं फिर भी सूखे ईन्धनसे अग्निके समान तृप्त नहीं हुआ ।।१२।। गमनागमनको देनेवाला
१. सखी म०। २. वातस्यापत्यं पुमान् वातिः हनूमान् । ३. लोभाख्याः ख० । लोभाताः म०। ४. वाहिताः म०। ५. मनुष्योऽपि परं प्रीतैर्भवद्भिः सहभोगवान् ब० ।
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