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द्वादशratri a
वसन्ततिलकावृत्तम्
किं न श्रुता नरकभीम विरोधरौद्रास्तीवासिपत्रवनसङ्कटदुर्गमार्गाः । रागोद्भवेन जनितं धनकर्मपङ्कं यचेच्छसि क्षपयितुं तपसा समस्तम् ॥ ६७ ॥ भासीनिरर्थकतमो घिगतीतकालो 'दीर्घेऽसुखार्णवजले पतितस्य निन्थे । आत्मानमच भवपञ्जरसन्निरुद्धं मोक्षामि लब्धशुभमार्गमतिप्रकाशः ॥ ६८ ॥
आर्या
इति कृतनिश्चयचेताः परिदृष्टयथार्थजीवलोकविवेकः । रविवि गतघनसङ्गस्तेजस्वी गन्तुमुद्यतोऽहं मार्गम् ॥ १६ ॥
इत्यार्षे | श्रीरविषेणाचार्य प्रणीते पद्मपुराणे हनुमन्निर्वेदं नाम द्वादशोत्तरशतं पर्व ॥ ११२ ॥
रहा है ? ॥६५-६६ ॥ हे हृदय ! क्या नरकके भयंकर विरोध से दुःखदायी एवं तीक्ष्ण असिपत्र वनसे संकट पूर्ण दुर्गम मार्ग, तूने सुने नहीं हैं कि जिससे रागोत्पत्तिसे उत्पन्न समस्त सघन कर्म रूपी पङ्कको तू तपके द्वारा नष्ट करनेकी इच्छा नहीं कर रहा है ॥६७॥ धिक्कार है कि दीर्घ तथा निन्दनीय दुःखरूपी सागर में डूबे हुए मेरा अतीतकाल सर्वथा निरर्थक हो गया। अब आज
शुभ मार्ग और शुभ बुद्धिका प्रकाश प्राप्त हुआ है इसलिए संसार रूपी पिंजड़े के भीतर रुके आत्माको मुक्त करता हूँ-भव-बन्धनसे छुड़ाता हूँ ॥६८॥ इस प्रकार जिसने हृदयमें दृढ़ निश्चय किया है तथा जीव लोकका जिसने यथार्थ विवेक देख लिया है ऐसा मैं मेघके संसर्गसे रहित सूर्यके समान तेजस्वी होता हुआ सन्मार्गपर गमन करनेके लिए उद्यत हुआ हूँ ॥६६॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराण में हनूमान् के वैराग्यका वर्णन करनेवाला एक सौ बारहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ॥ ११२ ॥
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१. दीर्घः सुखार्णवजले म० । दीर्घं सुखार्णव- ज० । २. निन्द्यः म० । ३. विरुद्धं म० । ४. मोक्ष्यामि म० ।
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