Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ द्वादशोत्तरशतं पर्व ज्वलज्ज्वलनसन्ध्याक्तमेघवृन्दसमप्रभम् । जाम्बूनदमयं भानुकूटप्रतिममुन्नतम् ॥४॥ अशेषोत्तमरत्नौधभूषितं परमाकृति'। मुक्तादामसहस्राव्यं बुदबुदादर्शशोभितम् ॥४५॥ किङ्किणीपट्टलम्बूषप्रकीर्णकविराजितम् । प्राकारतोरणोत्तुङ्गगोपुरैः परमैयुतम् ॥४६॥ नानावर्णचलत्केतुकाञ्चनस्तम्भभासुरम् । गम्भीरं चारुनिव्यूहमशक्याशेषवर्णनम् ॥४॥ पञ्चाशद्योजनायाम षट्त्रिंशन्मानमुत्तमम् । इदं जिनगृहं कान्ते सुमेरोर्मुकुटायते ॥४८॥ इति शंसन्महादेव्यै समीपत्वमुपागतः । अवतीर्य विमानामाच्चक्रे हृष्टः प्रदक्षिणाम् ॥४॥ तत्र सर्वातिशेषस्तु म हैश्वर्यसमन्वितम् । नक्षत्रग्रहताराणां शशाङ्कमिव मध्यगम् ॥५०॥ केसर्यासनमूर्द्धस्थं स्फुररस्फारस्वतेजसम् । शुभ्राभ्रशिखरस्याने शरदीव दिवाकरम् ॥५१॥ प्रतिबिम्बं जिनेन्द्रस्य सर्वलक्षणसङ्गतम् । सान्तःपुरो नमश्चक्रे रचिताञ्जलिमस्तकः ॥५२॥ जिनेन्द्रदर्शनोद्भूतमहासम्मदसम्पदाम् । विद्याधरवरस्त्रीणां तिरासीदलं परा ॥५३॥ उत्पन्नघनरोमाञ्चा विपुलाऽऽयतलोचनाः । भक्त्या परमया युक्ताः सर्वोपकरणान्विताः ॥५४॥ महाकुलप्रसूतास्ताः स्त्रियः परमचेष्टिताः। चक्रः पूजा जिनेन्द्राणां त्रिरशप्रमदा इव ॥५५॥ जाम्बूनदमयैः पद्मः पद्मरागमयैस्तथा । चन्द्रकान्तमयैश्चापि स्वभावकुसुमैरिति ॥५६॥ सौरभाक्रान्तदिक्चक्रेर्गन्धैश्च परमोज्ज्वलैः । पवित्रद्व्यसम्भूतेषूपैश्चाकुलकोटिभिः ॥५७॥ किन्नर और गन्धर्वोके संगीतसे शब्दायमान है, देवकन्याओंसे व्याप्त है, अप्सराओंके समूहसे आकीर्ण है, नाना प्रकारके गणोंसे परिपूर्ण है और दिव्य पुष्पोंसे सहित है ।।४१-४३।। जो जलती हुई अग्निके समान लाल-लाल सन्ध्यासे युक्त मेघ समूहके समान प्रभासे युक्त है, स्वर्णमय है, सूर्यकूटके समान है, उन्नत है, सब प्रकारके उत्तम रत्नों के समहसे भूषित है, उत्तम आकृतिवाला है, हजारों मोतियोंकी मालाओंसे सहित है, छोटे-छोटे गोले और दर्पणोंसे सुशोभित है, छोटीछोटी घंटियों, रेशमी वस्त्र, फन्नूस और चमरोंसे अलंकृत है, उत्तमोत्तम प्राकार, तोरण, और ऊँचे गोपुरोंसे युक्त है, जिस पर नाना रंगकी पताकाएँ फहरा रही हैं, जो सुवर्णमय खम्भोंसे सुशोभित है, गम्भीर है, सुन्दर छज्जोंसे युक्त है, जिसका सम्पूर्ण वर्णन करना अशक्य है, जो पचास . योजन लम्बा है और छत्तीस योजन चौड़ा है । हे कान्ते ! ऐसा यह जिन-मन्दिर सुमेरु पर्वतके मुकुटके समान जान पड़ता है ॥४४-४८॥ इस प्रकार महादेवीके लिए मन्दिरकी प्रशंसा करता हुआ हनूमान जब मन्दिरके समीप पहुँचा तब विमानके अग्रभागसे उतरकर हर्षित होते हुए उसने सर्वप्रथम प्रदक्षिणा दी ॥४६॥ तदनन्तर अन्य सबको छोड़ उसने अन्तःपुरके साथ हाथ जोड़ मस्तकसे लगा जिनेन्द्र भगवान् की उस प्रतिमाको नमस्कार किया कि जो महान् ऐश्वर्यसे सहित थी, नक्षत्र ग्रह और ताराओंके बीचमें स्थित चन्द्रमाके समान सुशोभित थी, सिंहासनके अग्रभागपर स्थित थी, जिसका अपना विशाल तेज देदीप्यमान था, जो सफ़ेद मेघके शिखरके अग्रभागपर स्थित शरत्कालीन सर समान थी, तथा सब लक्षणोंसे सहित थी ॥५०-५२॥ जिनेन्द्र-दर्शनसे जिन्हें महाहर्ष रूप सम्पत्तिकी उद्भूति हुई थी ऐसी विद्याधरराजकी स्त्रियोंको दर्शन कर बड़ा संतोष उत्पन्न हुआ ॥५३।। तदनन्तर जिनके सघन रोमाञ्च निकल आये थे, जिनके लम्बे नेत्र हर्षातिरेकसे और भी अधिक लम्बे दिखने लगे थे, जो उत्कृष्ट भक्तिसे युक्त थीं, सब प्रकारके उपकरणोंसे सहित थीं, महाकुलमें उत्पन्न थीं, तथा परमचेष्टाको धारण करनेवाली थीं ऐसी उन विद्याधरियोंने देवाङ्गनाओंके समान जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की ॥५४-५५॥ सुवर्णमय, पद्मराग मणिमय तथा चन्द्रकान्तमणिमय कमल, तथा अन्य स्वाभाविक पुष्प, सुगन्धिसे दिङमण्डलको व्याप्त करनेवाली १. परमाकृतिम् म० । २. उच्चधूमशिखैः श्री ० टि० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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