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पञ्चोत्तरशतं पर्व
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रत्नाभा प्रथमा तत्र यस्यां भवनजाः सुराः । षडयस्तात्ततः क्षोण्यो महाभयसमावहाः ॥११॥ शर्करावालुकापतधूमध्वान्ततमोनिभाः । सुमहादुःखदायिन्यो नित्यान्धध्वान्तसंकुलाः ॥१२॥ सप्तायस्तलदुःस्पर्शमहाविषमदुर्गमाः । शीतोनवेदनाः काश्चिद्वसारुधिरकर्दमाः ।।११३॥ श्वसर्पमनुजादीनां कुथितानां कलेवरैः । सन्मिश्रो यो भवेद्गन्धस्तादृशस्तन्न कीर्तितः ।।११४॥ नानाप्रकारदुःखौघकारणानि समाहरन् । वाति तत्र महाशब्दः प्रचण्डोद्दण्डमारुतः ।।११५।। रसनस्पर्शनासक्ता जीवास्तत् कम कुर्वते । गरिष्टा नरके येन पतन्त्यायसपिण्डवत् ।। ११६॥ हिंसावितथचौर्यान्यस्त्रीसङ्गाद निवर्तनाः । नरकेषूपजायन्ते पापभारगुरूकृताः ॥११७।। मनुष्यजन्म सम्प्राप्य सततं भोगसङ्गताः । जनाः प्रचण्डकर्माणो गच्छन्ति नरकावनिम् ।।११८॥ विधाय कारयित्वा च पापं समनुमोद्य च । रौद्रातप्रवणा जीवा यान्ति नारकबीजताम् ॥११॥ वज्रोपमेषु कुड्येषु निःसन्धिकृतपूरणाः । नारकेनाग्निना पापा दह्यन्ते कृतविस्वराः ।।१२०॥ ज्वलद्वतिचयागीता यान्ति वैतरणी नदीम् । शीतलाम्बुकृताकांक्षास्तस्यां मुञ्चन्ति देहकम् ॥१२१।। ततो महोत्कटतारदग्धदेहोरुवेदनाः । मृगा इव परित्रस्ता असिपत्रवनं स्थिताः॥१२२।। छायाप्रत्याशया यत्र सङ्गता दुप्कृतप्रियाः। प्राप्नुवन्त्य सिनाराचचक्रकुन्तादिदारणम् ॥१२३॥ खरमारुतनिधूतैनरकागसमीरितैः । तीचणैरस्त्रसमू हैस्ते दार्यन्ते शरणोज्झिताः ॥१२४॥
उनमें पहली भूमि रत्नप्रभा है जिसके अन्बहुल भागको छोड़कर ऊपरके दो भागों में भवनवासो तथा व्यन्तर देव रहते हैं । उस रत्नप्रभाके नीचे महाभय उत्पन्न करनेवाली शर्करा प्रभा, बालुका. प्रभा, पङ्कप्रभा, धमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नामकी छह भमियाँ और हैं जो अत्यन्त तीव्र दुःखको देनेवाली हैं तथा निरन्तर घोर अन्धकारसे व्याप्त रहती हैं ।।१११-११२॥ उनमें से कितनी ही भूमियाँ संतप्त लोहेके तलके समान दुःखदायी गरम स्पर्श होनेके कारण अत्यन्त विषम
और दुर्गम हैं तथा कितनी ही शीतकी तीव्र वेदनासे युक्त हैं। उन भूमियोंमें चर्वी और रुधिरकी कीच मची रहती है ।।११३।। जिनके शरीर सड़ गये हैं ऐसे अनेक कुत्ते, सर्प तथा मनुष्यादिकी जैसी मिश्रित गन्ध होती है वैसी ही उन भूमियोंकी बतलाई गई है ॥११४।। वहाँ नानाप्रकारके दुःख-समूहके कारणोंको साथमें ले आनेवाली महाशब्द करती हुई प्रचण्ड वायु चलती है ॥११५।। स्पर्शन तथा रसना इन्द्रियके वशीभूत जीव उस कर्मका सञ्चय करते हैं कि जिससे वे लोहेके पिण्डके समान भारी हो उन नरकोंमें पड़ते हैं ।।११६॥ हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसंग तथा परिग्रहसे निवृत्त नहीं होनेवाले मनुष्य पापके भारसे बोझिल हो नरकोंमें उत्पन्न होते हैं ॥११॥ जो मनुष्य-जन्म पाकर निरन्तर भोगोंमें आसक्त रहते हैं ऐसे प्रचण्डकर्मा मनुष्य नरकभूमिमें जाते हैं ॥११८।। जो जीव स्वयं पाप करते हैं, दूसरेसे कराते है तथा अनुमोदन करते हैं, वे रौद्र तथा आर्तध्यानमें तत्पर रहनेवाले जीव नरकायुको प्राप्त होते हैं ॥११॥ वनोपम दीवालोंमें ढूंस--स कर भरे हुए पापी जीव नरकोंकी अग्निसे जलाये जाते हैं और तब वे महाभयंकर शब्द करते हैं ॥१२०।। जलती हुई अग्निके समूहसे भयभीत हो नारकी, शीतल जलकी इच्छा करते हुए वैतरणी नदीकी ओर जाते हैं और उसमें अपने शरीरको छोड़ते हैं अर्थात् गोता लगाते हैं ॥१२१।। गोता लगाते ही अत्यन्त तीव्र क्षारके कारण उनके जले हुए शरीरमें भारी वेदना होती है। तदनन्तर मृगोंको तरह भयभीत हो उस असिपत्रवनमें पहुँचते हैं ।।१२२॥ जहाँ कि पापी जीव छायाकी इच्छासे इकट्ठे होते हैं परन्तु छायाके बदले खड्ग, बाण, चक्र तथा भाले आदि शस्त्रोंसे छिन्नभिन्न दशाको प्राप्त होते हैं ॥१२३॥ तीक्ष्ण वायुसे कम्पित नरकके वृक्षोंसे प्रेरित तीक्ष्ण अत्रोंके
१. पारणाः म० । २. दारुणं म०, ज०1३. नारकांग-ज०।
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