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पद्मपुराणे
ध्रवं यदा समासाद्यो विग्हो बन्धुभिः समम् । असमञ्जसरूपेऽस्मिन्संसारे का रतिस्तदा ॥३॥ अयं मे प्रिय इत्याऽऽस्थाव्यामोहोपनिबन्धना' । एक एव यतो जन्तुर्गस्यागमनदुःखभाक् ॥८॥ वितथागमकुद्वीपे मोहसङ्गतपङ्कके। शोकसंतापफेनाढ्ये भवाऽवत्तवजाकुले ॥५॥ व्याधिमृत्यूमिकल्लोले मोहपातालगह्वरे । क्रोधादिमकरक्रूरनक्रसंघातघहिते ॥८६॥ कुहेतुलमयोद्भूतनिादात्यन्तभैरवे । मिथ्यात्वमारुतोद्धृते दुर्गतिक्षारवारिणि ॥७॥ नितान्तदुःसहोदारवियोगबडवानले । सुचिरं तात खिन्नाः स्मो घोरे संसारसागरे ॥८॥ नानायोनिषु संभ्रम्य कृच्छ्रात्प्राप्ता मनुष्यताम् । कुमस्तथा यथा भूयो मजामो नाऽत्र सागरे ॥८॥ ततः परिजनाकीर्णावापृच्छय पितरौ क्रमात् । अष्टौ कुमारवीरास्ते निर्जग्मुर्गहचारकात् ॥१०॥ आसीनिःकामतां तेषामीश्वरत्वे तथाविधे । बुद्धिर्जीर्णतृणे यद्वा संसाराचारवेदिनाम् ॥१॥ ते महेन्द्रोदयोद्यानं गत्वा संवेगकं ततः । महाबलमुनेः पावें जगृहनिरगारताम् ॥१२॥
आर्या सर्वारम्भविरहिता विहरन्ति नित्यं निरम्बरा विधियुक्तम् । क्षान्ता दान्ता मुक्ता निरपेक्षाः परमयोगिनो ध्यानरताः ॥१३॥
उपजातिः सम्यक्तपोभिः प्रविधूय पापमध्यात्मयोगैः परिरुध्य पुण्यम् । ते क्षीणनिःशेषभवप्रपञ्चाः प्रापुः पदं जैनमनन्तसौख्यम् ॥४॥
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इनको आवश्यकता नहीं है ।।२।। जब कि बन्धुजनोंके साथ विरह अवश्यंभावी है तब इस . अटपटे संसारमें क्या प्रीति करना है ? ॥५३॥ 'यह मेरा प्यारा है। ऐसी आस्था केवल व्यामोहके
कारण उत्पन्न होती है क्योंकि यह जीव अकेला ही गमनागमनके दुःखको प्राप्त होता है ॥४|| मिथ्याशास्त्र ही जिसमें खोटे द्वीप हैं, मोहरूपी कीचड़से जो युक्त है, जो शोक संतापरूपी फेनसे सहित है, जन्मरूपी भँवरोंके समूहसे व्याप्त है, व्याधि तथा मृत्युरूपी तरङ्गोंसे - युक्त है, मोहरूपी गहरे गोंसे सहित है, क्रोधादि कषाय रूपी कर मकर और नाकोंके समूहसे : लहरा रहा है, मिथ्या तर्कशास्त्रसे उत्पन्न शब्दोंसे अत्यन्त भयंकर है, मिथ्यात्व रूपी वायुके : द्वारा कम्पित है, दुर्गतिरूपी खारे पानीसे सहित है और अत्यन्त दुःसह तथा उत्कट वियोग रूपी . बड़वानलसे युक्त है ऐसे भयंकर संसार-सागरमें हे तात! हम लोग बहुत समयसे खेद-खिन्न
रहे हैं ॥८५-८८|| नाना योनियों में परिभ्रमण करनेके बाद हम बड़ी कठिनाईसे मनुष्य पर्यायको प्राप्त हुए हैं इसलिए अब वह काम करना चाहते हैं कि जिससे पुनः इस संसारसागरमें न डूवें ||
तदनन्तर परिजनके लोगोंसे घिरे हुए माता-पितासे पूछकर वे आठों वीर कुमार क्रमक्रमसे घर रूपी कारागारसे बाहर निकले ।।६०॥ संसार-स्वरूपको जाननेवाले, घरसे निकलते हुए उन वीरोंकी उस प्रकारके विशाल साम्राज्यमें ठीक उस तरहकी अनादर बुद्धि हो रही थी जिस प्रकार कि जीर्ण-तृणमें होती है ।।६।। तदनन्तर उन्होंने महेन्द्रोदय नामा उद्यानमें जाकर संवेगपूर्वक महाबल मुनिके समीप निम्रन्थ दीक्षा धारण कर ली ॥२॥ जो सब प्रकारके आरम्भसे रहित थे, दिगम्बर थे, क्षमा युक्त थे, दमन शील थे, सब झंझटोंसे मुक्त थे, निरपेक्ष थे और ध्यानमें तत्पर थे ऐसे वे परम योगी निरन्तर विहार करते रहते थे ।।३।। समीचीन तपके द्वारा पापको नष्ट कर, और अध्यात्मयोगके द्वारा पुण्यको रोककर जिन्होंने संसारका
१ निबन्धनः म०। २. सुचिरे म०।
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