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दशाधिकशतं पर्व
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स्नेहावासनचित्तास्ते संविमृश्य जणं धिया । भवभीता हुषीकाऽऽप्यसौख्यकान्तपराडमुखाः ।।७।। उदारवीरतादत्तमहावष्टम्भशालिनः । ऊचुः कुमारवृषभास्तत्वविन्यस्तचेतसः ॥७॥ मातरः पितरोऽन्ये च संसारेऽनन्तशो गताः । स्नेहबन्धनमेतानामेतद्धि चारकं गृहम् ।।७२।। पापस्य परमारम्भं नानादुःखाभिवर्द्धनम् । गृहपजरकं मूढाः सेवन्ते न प्रबोधिनः ॥७३।। शारीरं मानसं दुःखं मा भूभूयोऽपि नो यथा। तथा सुनिश्चिताः कुर्मः किं वयं स्वस्य वैरिणः ।।७४।। निर्दोषोऽहं न मे पापमस्तीस्यपि विचिन्तयन् । मलिनत्वं गृही याति शुक्लांशुकमिव स्थितम् ॥७५।। उत्थायोत्थाय यन्त्रणां गृहाश्रमनिवासिनाम् । पापे रतिस्ततस्त्यक्तो गृहिधर्मों महात्मभिः ।।७६॥ भुज्यतां तावदैश्वर्यमिति यत्रोक्तवानसि । तदन्धकारकूपे नः तिपसि ज्ञानवानपि ॥७७॥ पिबन्तं मृगकं यद्वद्वयाधो हन्ति तृषा जलम् । तथैव पुरुषं मृत्युर्हन्ति भोगैरतृप्तकम् ॥७॥ विषयप्राप्तिसंसक्तमस्वतन्त्रमिदं जगत् । कामैराशीविषः सार्क क्रीडत्यज्ञमनौषधम् ॥७॥ विषयामिषसंसक्ता मग्ना गृहजलाशये । रुजा वदिशयोगेन नरमीना वजनत्यमुम् ॥॥ अत एव नृलोकेशो जगस्त्रितयवन्दितः। जगत्स्वकर्मणां वश्यं जगाद भगवानृषिः ॥८॥ दुरन्तैस्तदलं तात प्रियसनामलोभनेः । विचक्षणजनद्विष्टस्तडिहण्डचलाचलः ॥२॥
तदनन्तर स्नेहके दूर करने में जिनके चित्त लग रहे थे, जो संसारसे भयभीत थे, इन्द्रियोंसे प्राप्त होने योग्य सुखोंसे एकान्तरूपसे विमुख थे, उदार वीरताके द्वारा दिये हुए आलम्बनसे जो सुशोभित थे तथा तत्त्व विचार करने में जिनके चित्त लग रहे थे ऐसे वे सब कुमार बुद्धि द्वारा क्षणभर विचार कर बोले कि इस संसारमें माता-पिता तथा अन्य लोग अनन्तों बार प्राप्त होकर चले गये हैं। यथार्थमें स्नेहरूपी बन्धनको प्राप्त हुए मनुष्योंके लिए यह घर एक बन्दी गृहके समान है ।।७०-७२।। जिसमें पापका परम आरम्भ होता है तथा जो नाना दुःखोंको बढ़ानेवाला है ऐसे गृहरूपी पिंजड़ेकी मूर्ख मनुष्य ही सेवा करते हैं बुद्धिमान् नहीं ॥७३॥ जिस तरह शारीरिक और मानसिक दुःख हमें पुनः प्राप्त न हों उस तरह ही दृढ़ निश्चय कर हम कार्य करना चाहते हैं । क्या हम अपने आपके वैरी हैं ॥७४|| गृहस्थ यद्यपि यह सोचता है कि मैं निर्दोष हूँ, मेरे पाप नहीं हैं, फिर भी वह रखे हुए शुक्लवस्त्रके समान मलिनताको प्राप्त हो ही जाता है ।।७।। यतश्चम
हस्थाश्रम में निवास करनेवाले मनुष्योंको उठ-उठकर पापमें प्रीति होती है इसीलिए महात्मा पुरुषोंने गृहस्थाश्रमका त्याग किया है ।।७६।। आपने जो कहा है कि अच्छी तरह ऐश्वर्यका उपभोग करो सो आप हमें ज्ञानवान् होकर भी अन्धकूपमें फेंक रहे हैं ॥७॥ जिस प्रकार प्याससे पानी पीते हुए हरिणको शिकारी मार देता है उसी प्रकार भोगोंसे अतृप्त मनुष्यको मृत्यु मार देती है ॥७॥ विषयोंकी प्राप्तिमें आसक्त, परतन्त्र, अज्ञानी तथा औषधसे रहित यह संसार कामरूपी सापोंके साथ क्रीड़ा कर रहा है।
भावार्थ-जिस प्रकार साँपोंके साथ खेलनेवाले अज्ञानी एवं औषधरहित मनुष्य मरणको प्राप्त होता है उसी प्रकार आस्रवबन्ध और संवर निर्जराके ज्ञानसे रहित यह जीव इन्द्रिय भोगोंके साथ क्रीड़ा करता हुआ मृत्युको प्राप्त होता है॥७६|घररूपी जलाशयमें मग्न तथा विषयरूपी मांसमें आसक्त ये मनुष्यरूपी मच्छ रोगरूपी वंशीके योगसे पत्युको प्राप्त होते हैं ॥८०। इसीलिए मनुष्यलोकके स्वामी, लोकत्रयके द्वारा वन्दित भगवान् जिनेन्द्र जगत्को अपने कर्मके आधीन कहा है। भावार्थ-भगवान् जिनेन्द्रने बताया है कि संसारके सब प्राणी स्वीकृत कर्मों के आधीन हैं।।१।।इसलिए हे तात ! जिनका परिणाम अच्छा नहीं है,प्रियजनोंका समागम जिनका प्रलोभन है, जो विद्वजनोंके द्वेषपात्र हैं तथा जो बिजलीके समान चश्छल हैं ऐसे इन भोगोंसे पूरा पड़े अर्थात
१. स्नेहबन्धनमेतद्धि चारकं नारकं गृहम् म०, ख० । Jain Education International
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