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दशाधिकशतं पर्व
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एवं लचमणपुत्राणां वृन्दे प्रारब्धशोचने । ऊचे रूपवतीपुत्रः प्रहस्य गतविस्मयः ॥४॥ बीमात्रस्य कृते कस्मादेवं शोचत समराः। चेष्टितादिति वो हास्यं परमं समजायत ॥४२॥ किमाभ्यां 'निवृतेर्दूती लब्धा जैनेश्वरी युतिः । अबुधा इव यद्वयर्थं संशोचत पुनः पुनः ॥४३॥ रम्भास्तम्भसमानानां निःसाराणां हतात्मनाम् । कामानां वशगाः शोकं हास्यं नो कत्त महथ ॥४४॥ सर्वे शरीरिणः कर्मवशे वृत्तिमुपाश्रिताः। न तत्कुरुथ कि येन तस्कर्म परिणश्यति ॥४५॥ गहने भवकान्तारे प्रणष्टाः प्राणधारिणः । ईशि यान्ति दुःखानि निरस्यत ततस्तकम् ॥४६॥ भ्रातरः कर्मभूरेषा जनकस्य प्रसादतः । द्यौरिहावस्तास्माभिर्मोहवेष्टितबुद्धिभिः ॥४७॥ अङ्कस्थेन पितुर्याख्ये वाच्यमानं पुरा मया । पुस्तके श्रुतमत्यन्तं सुस्वरं वस्तु सुन्दरम् ॥४८॥ भवानां किल सर्वेषां दुर्लभो मानुषो भवः । प्राप्य तं स्वहितं यो न कुरुते स तु वश्चितः ॥४६॥ ऐश्वर्य पात्रदानेन तपसा लभते दिवम् । ज्ञानेन च शिवं जीवो दुःखदां गतिमंहसा ॥५०॥ पुनर्जन्म ध्रुवं ज्ञात्वा तपः कुर्मो न चेद् वयम् । अवाप्तव्या ततो भूयो दुर्गतिर्दुःखसङ्कटा ॥५१॥ एवं कुमारवीरास्ते प्रतिबोधमुपागताः । संसारसागराऽसातावेदनाऽऽवर्तभीतिगाः ॥५२॥ स्वरितं पितरं गत्वा प्रणम्य विनगस्थिताः । प्राहुर्मधुरमत्यर्थ रचिताञ्जलिकुड्मलाः ॥५३॥ तात नः शृणु विज्ञातं न विघ्नं कत्तुमर्हसि । दीक्षामुपेतुमिच्छामो व्रज तत्राऽनुकूलताम् ॥५४॥ विद्यदाकालिकं ह्येतजगत्सारविवर्जितम् । विलोक्यो दीयतेऽस्माकमत्यन्तं परमं भयम् ॥५५॥ कश्चिदधुना प्राप्ता बोधिरस्माभिरुत्तमा। यया नौभूतया पारं प्रयास्यामो भवोदधेः ॥५६॥
इस प्रकार जब लक्ष्मणके पुत्र शोक करने लगे तब जिसका आश्चर्य नष्ट हो गया था ऐसे रूपवतीके पुत्रने हँसकर कहा कि अरे भले पुरुषो ! स्त्री मात्रके लिए इस तरह क्यों शोक कर रहे हो ? तुम लोगोंकी इस चेष्टासे परम हास्य उत्पन्न होता है-अधिक हँसी आ रही है ॥४१-४२॥ हमें इन कन्याओंसे क्या प्रयोजन है ? हमें तो मुक्तिकी दूती स्वरूप जिनेन्द्रभगवान्की कान्तिकी प्राप्ति हो चुकी है अर्थात् हमारे मनमें जिनेन्द्र मुद्राका स्वरूप मूल रहा है। फिर क्यों मूखोंके समान तुम व्यर्थ ही बार-बार इसीका शोक कर रहे हो ? ॥४३।। केलेके स्तम्भके समान निःसार तथा आत्माको नष्ट करनेवाले कामोंके वशीभूत हो तुम लोग शोक और हास्य करनेके योग्य नहीं हो
हीं हो ॥४४॥ सब प्राणी कर्मके वशमें पड़े हुए हैं इसलिए वह काम क्यों नहीं करते कि जिससे वह कर्म नष्ट हो जाता है ॥४५॥ इस संसार रूपी सघन वनमें भूले हुए प्राणी ऐसे दुःखोंको प्राप्त हो रहे हैं इसलिए उस संसार वनको नष्ट करो ॥४६॥ हे भाइयो ! यह कर्मभूमि है परन्तु पिताके प्रसादसे मोहाक्रान्त बुद्धि होकर हम लोग इसे स्वर्ग जैसा समझ रहे हैं ॥४७॥ पहले बाल्यावस्थामें पिताकी गोद में स्थित रहनेवाले मैंने किसीके द्वारा पुस्तकमें बाँची गई एक बहुत ही सुन्दर वस्तु सुनी थी कि सब भवोंमें मनुष्यभव दुर्लभ भव है उसे पाकर जो अपना हित नहीं करता है वह वश्चित रहता है-ठगाया जाता है ॥४८-४६। यह जीव पात्रदानसे ऐश्वर्यको, तपसे स्वर्गको, ज्ञानसे मोक्षको, और पापसे दुःखदायी गतिको प्राप्त होता है ।।५०।। 'पुनर्जन्म अवश्य होता है। यह जानकर भी यदि हम तप नहीं करते हैं तो फिरसे दुःखोंसे भरी हुई दुर्गति प्राप्त करनी होगी ॥५१।। इस प्रकार संसार-सागर के मध्य दुःखानुभवरूपी भँवरसे भयभीत रहनेवाले वे वीरकुमार प्रतिबोधको प्राप्त हो गये।।५२।। और शीघ्र ही पिताके पास जाकर तथा प्रणाम कर विनयसे खड़े हो हाथ जोड़ अत्यन्त मधुर स्वरमें कहने लगे कि हे पिताजी ! हमारी प्रार्थना सुनिए । आप विघ्न करनेके योग्य नहीं हैं। हम लोग दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं सो इसमें अनुकूलताको प्राप्त हूजिए ॥५३-५४॥ इस संसारको बिजलीके समान क्षणभङ्गुर तथा साररहित देखकर हम लोगोंको अत्यन्त तीव्र भय उत्पन्न हो रहा है ॥५५॥ हम लोग इस समय
१. निवृत्ते म० । २. यानि म०, ज० । ३. विलोक्य दीयते ब०, ज० । ४. रुषम् म०, ज० । Jain Education Interna 88-3
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