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दशाधिकशतं पर्व
दच्यन्ते ये तु ते स्वस्य सजयन्तो विभूषणम् । नाज्ञासिषुः क्रिया कृत्यास्तिष्ठाम इति चञ्चलाः ॥१४॥ प्रवरिष्यति के वेषा रूपगर्ववराकुला । मन्येऽस्माकमिति प्राप्ताश्चिन्ता ते चलमानसाः॥१५॥ गृहीते किं विजिस्यैते सुरासुरजगद्वयम् । पताके कामदेवेन लोकोन्मादनकारणे ॥१६॥ अथोत्तमकुमायौं ते निरीक्ष्य लवणाङ्कुशौ । विद्ध मन्मथवाणेन निश्चलत्वमुपागते ॥१७॥ महादृष्टयाऽनुरागेण बद्धयातिमनोहरः । अनङ्गलवणोऽग्राहि मन्दाकिन्याऽग्रकन्यया ॥१८॥ शशाङ्कवक्त्रया चारुभाग्यया वरकन्यया। शशाङ्कभाग्यया युक्तो जगृहे मदनाङ्कुशः ॥१६॥ सतो हलहलारावस्तस्मिन सैन्ये समुत्थितः । जयोत्कृष्टहरिस्वानसहितः परमाकुलः ॥२०॥ मन्ये व्यपाटयन् व्योम हरितो वा समन्ततः । उड्डीयमानेर्लोकस्य मनोभिः परमत्रपैः ॥२१॥ अहो सशसम्बन्धो दृष्टोऽस्माभिरयं परः । गृहीतो यत्सुकन्याभ्यामेतौ' पद्माभनन्दनौ ॥२२॥ गम्भीरं भुवनाख्यातमुदारं लवणं गता । मन्दाकिनी यदेतं हि नापूर्ण कृतमेतया ॥२३॥ जेतुं सर्वजगत्कान्ति चन्द्रभाग्या समुद्यता । अकरोत्साधु यद्योग्यं मदनाङ्कुशमग्रहीत् ॥२४॥ इति तत्र विनिश्वेरुः सजनानां गिरः पराः । सतां हि साधुसम्बन्धाञ्चित्तमानन्दमीयते ॥२५॥ विशत्यादिमहादेवीनन्दनाश्चारुचेतसः । अष्टौ कुमारवीरास्ते प्रख्याता वसवो यथा ॥२६॥
शतैर तृतीयैर्वा भ्रातृणां प्रीतिमानसः । युक्तास्तारागणान्तस्था ग्रहा इव विरेजिरे ॥२७॥ पड़ गई थी ऐसे राजकुमार उन कन्याओंके द्वारा देखे जाकर संशयकी तराजूपर आरूढ़ हो रहे थे ।।१३।। जो राजकुमार उन कन्याओंके द्वारा देखे जाते थे वे अपने आभूषणोंको सजाते हुए करने योग्य क्रियाओंको भूल जाते थे तथा हम कहाँ बैठे हैं यह भूल चञ्चल हो उठते थे ॥१४॥ सौन्दर्यरूपी गर्वके ज्वरसे आकुल यह कन्या हम लोगों में से किसे वरेगी इस चिन्ताको प्राप्त हुए राजकुमार चञ्चलचित्त हो रहे थे ।।१।। वे उन कन्याओंको देखकर विचार करने लगते थे कि क्या देव और दानवोंके दोनों जगत्को जीतकर कामदेवके द्वारा ग्रहण की हुईं, लोगोंके उन्मादकी कारणभूत ये दो पताकाएँ ही हैं ।।१६।।
____ अथानन्तर वे दोनों कुमारियाँ लवणाङ्कशको देख कामबाणसे विद्ध हो निश्चल खड़ी हो गयीं ॥१७॥ उन दोनों कन्याओंमें मन्दाकिनी नामकी जो बड़ी कन्या थी उसने अनुरागपूर्ण महादृष्टि से अनङ्गलवणको ग्रहण किया ॥१८॥ और चन्द्रमुखी तथा सुन्दर भाग्यसे युक्त चन्द्र.. भाग्या नामकी दूसरी उत्तम कन्याने अपने योग्य मदनाङ्कशको ग्रहण किया ॥१।। तदनन्तर उस सेनामें जयध्वनिसे उत्कृष्ट सिंहनादसे सहित हलहलका तीव्र शब्द उठा ॥२०॥ ऐसा जान पड़ता था कि तीव्र लज्जासे भरे हुए लोगोंके जो मन सब ओर उड़े जा रहे थे उनसे मानों आकाश अथवा दिशाएँ ही फटी जा रही थीं ॥२१॥ उस कोलाहलके बीच समझदार मनुष्य कह रहे थे कि अहो ! हम लोगोंने यह योग्य उत्कृष्ट सम्बन्ध देख लिया जो इन कन्याओंने रामके इन पुत्रोंको ग्रहण किया है ॥२२।। मन्दाकिनी अर्थात् गङ्गानदी, गम्भीर तथा संसारप्रसिद्ध, लवणसमुद्रके पास गयी है सो इस लवण अर्थात् अनंग लवणके पास जाती हुई इस मन्दाकिनी नामा कन्याने भी कुछ अपूर्ण अयोग्य काम नहीं किया है ।।२३।। और सर्व जगत्की कान्तिको जीतनेके लिए उद्यत इस चन्द्रभाग्याने जो मदनांकुशको ग्रहण किया है सो अत्यन्त योग्य कार्य किया है ॥२४॥ इस प्रकार उस सभामें सज्जनोंकी उत्तम वाणी सर्वत्र फैल रही थी सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम सम्बन्धसे सज्जनोंका चित्त आनन्दको प्राप्त होता ही है ॥२५॥ लक्ष्मणकी विशल्या आदि आठ महादेवियोंके जो आठ वीर कुमार, सुन्दर चित्तके धारक, आठ वसुओंके समान सर्वत्र प्रसिद्ध थे वे प्रीतिसे भरे हुए अपने अढ़ाई सौ भाइयोंसे इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो तारागणोंके मध्यमें स्थित प्रह ही हों ।।२६-२७॥
१. मेता म० । २. भुवनं ख्यातं म० । ३. वासवो म । Jain Education International
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